Thursday, December 9, 2010

मशहूर कृति 'आलमपनाह' की लेखिका रफिया मंजूरूल अमीन

saabhar- ब्लॉगवाणी


रफिया मंजूरूल अमीन 1930-2008

कल रेडियोनामा पर अन्‍नपूर्णा जी ने नाट्यतरंग का जिक्र किया और अनायास हमें याद आ गयीं रफिया मंजूरूल अमीन । अंदाज़न साल 1997-98 की बात रही होगी । विविध-भारती पर नाट्यतरंग के अंतर्गत कुछ नये सीरियलों का आगमन हुआ । इनमें से ज्‍यादातर साहित्यिक-कृतियों पर आधारित थे । तब आलमपनाह का प्रसारण भी हुआ था । बहुत मुमकिन है कि हैदराबाद की किसी ऐजेन्‍सी ने इसका निर्माण किया हो । इस रेडियो-धारावाहिक की शुरूआत एक व्‍यक्ति के गाने से होती थी । उनके गाने में शायद बोल नहीं थे । बस एक ही लफ्ज़ था--'हैदराबाद' । जिसे वो अलग-अलग अंदाज़ में गाते थे । 'आलमपनाह' को जिस दकनी हिंदी में पेश किया गया था, वो बेमिसाल था । उन दिनों मैं रेडियोसखी ममता सिंह के साथ फोन-इन कार्यक्रम 'आपके अनुरोध पर' करता था । जिसका उद्देश्‍य था विविध-भारती से प्रसारित 'स्‍पोकन वर्ड्स' यानी बोले हुए शब्‍दों के कार्यक्रमों के अंश श्रोताओं की फरमाईश पर दोबारा प्रसारित करना । यकीन मानिए आलमपनाह की लोकप्रियता का वो आलम था कि लगभग हर सप्‍ताह हमें आलमपनाह के किसी एपीसोड से एक पूरी घटना निकालकर प्रसारित करनी पड़ती थी । और लोगों का जी उसे सुनते हुए कभी नहीं भरता था ।

'आलमपनाह' के बारे में एक बात आपको और बतानी है । रेडियो पर इस कृति का रूपांतरण जितना लोकप्रिय हुआ उतना ही लोकप्रिय हुआ था इसका टी.वी. रूपांतरण । आपको टी.वी.सीरियल 'फरमान' याद है । दूरदर्शन के ज़माने में राजा बुंदेला अभिनीत इस सीरियल की लोकप्रियता वाक़ई देखने लायक़ थी । आज भी लोग इस धारावाहिक को याद करते हैं । दिलचस्‍प बात ये है कि ये उन सीरियलों में से था जिसमें आज के सीरियलों की तरह 'मेलोड्रामा' का फूहड़ छौंक नहीं था । इनमें एक ठोस कथा थी और वो आगे भी बढ़ती थी ।

रफिया आपा के बारे में कल खोजबीन कर रहा था कि इस ब्‍लॉग पर एक ख़बर ऐसी मिली जिससे जी धक रह गया, तीस जून 2008 को रफिया मंजूरूल अमीन का हैदराबाद में देहांत हो गया । वो अठहत्‍तर साल की थीं । रफिया मंजूरूल अमीन का पहला उपन्‍यास था 'सारे जहां का दर्द' । जो कश्‍मीर की पृष्‍ठभूमि पर लिखा गया था और इसे लखनऊ के नसीम अनहोन्‍वी के प्रकाशन ने छापा था । उनका दूसरा उपन्‍यास था--'ये रास्‍ते' और इसके बाद आया 'आलमपनाह' । रफिया आपा ने दो सौ से ज्‍यादा अफ़साने( कहानियां) लिखे हैं । चूंकि वो विज्ञान की छात्रा थीं इसलिए उन्‍होंने एक विज्ञान-पुस्‍तक लिखी--'साइंसी ज़ाविये' । जो नागपुर में उर्दू स्‍कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल हुई । रफिया आपा सन 1930 में पैदा हुई थीं और उन्‍होंने तीस जून को अपनी आखिरी सांस ली ।

मुझे याद है कि मुंबई से अपने शहर जबलपुर की यात्रा के दौरान खंडवा स्‍टेशन के बुक स्‍टॉल पर 'आलमपनाह' का हिंदी संस्‍करण दिख गया था । अपने संग्रह से इस पुस्‍तक को खोजकर निकाला तो पाया कि इस पर मेरे हस्‍ताक्षर के साथ 19 अप्रैल 1998 की तारीख़ पड़ी है । और स्‍थान भी खंडवा लिखा है । इसे हिंद पॉकेट बुक्‍स ने छापा है । अगर ये संस्‍करण बचा है या अगला संस्‍करण आया है तो आपको उपलब्‍ध हो सकता है । ISBN कोड है 81-216-0312-9 ।

रफिया आपा ने सिर्फ लिखा ही नहीं बल्कि चित्र और शिल्‍पकला में भी वो माहिर थीं ।
रेडियोनामा परिवार रफिया आपा को भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित करता है ।

annapurna said...

आलमपनाह के जिस गीत का आप ज़िक्र कर रहे है उसे ख़ान अथर ने गाया। ख़ान अथर हैदराबाद के बहुत अच्छे गायक है ख़ासकर ग़ज़लें बहुत अच्छी गाते है। इस धारावाहिक के संगीत निर्देशन में भी उनका सहयोग रहा।

दूरदर्शन के फ़रमान धारावाहिक की शूटिंग अधिकतर हैदराबाद में हुई निर्देशक शायद लेख टंडन थे। कँवलजीत और विनीता मलिक के साथ हैदराबाद के नामी सितारे इसमें शामिल थे।

रफ़िया आपा और मंज़रूल साहब हैदराबाद की नामी शक्सियतों में से थे और हैदराबाद में आयोजित ख़ास प्रोग्रामों विशेषकर मुशायरों में ख़ासतौर पर नज़र आते थे।

Wednesday, December 8, 2010

हिंदी और उर्दू का बहनापा


हिंदी और उर्दू के बहनापे को लेकर कादम्बनी के इस अंक (दिसम्बर २०१०) ने खासा आकर्षित किया . मुन्नवर राणा की यह पंक्तियाँ इस पूरे लेख का खुलासा करती है-
मै उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ, हिंदी मुस्कुराती है
लिपट जाता हूँ माँ से, और मौसी मुस्कुराती है
अमेरिका में इन दोनों भाषाओ के लिए एक ही लेक्चरार रखे जाते है और इसलिए उर्दू जानने वाले बाज़ी मार ले जाते है क्योंकि उर्दू तो वे सीखते है मगर हिंदी वे जानते हैं. वज़ह चाहे जो भी हो, इन दोनों भाषाओ को करीब ले आने की हिमायत करने वालों में उर्दू के जानकार ही ज्यादा दिखाई देते हैं वह चाहे असगर वजाहत हो, या कमर वाहिद नकवी या फिर शम्सुल इस्लाम .
मीडिया की भाषा में भी हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी का मिला जुला स्वरुप ही अधिक स्वीकारा जाता है.
इन सारी स्थितियों को देखते हुए ये साफ़ कहा जा सकता है की कोई भी भाषा जो अपने आपको सरल और सहज रूप में किसी भी भाषा के साथ अच्छा तालमेल रखते हुए मेल मिलाप से रहती है उसके आगे बढ़ने की सम्भावना अधिक रहती है किसी भी भाषा को दुष्कर रूप चलन में नहीं रह पता वह चाहे उर्दू हो या हिंदी या फर अंग्रेजी ही क्यों न हो.

Tuesday, December 7, 2010

कुर्तुल-एन-हैदर


कुर्तुल
तुम्हारी कहानियों से गुजरना
गुजरना है उन राहों से
जिनसे तुम गुजरी होगी
तुम्हारे सवाल
कितने सहज है आज भी,
लड़कियाँ,
दूसरों के लिए
चाहे गहरी सुरंगे हों,
पर तुम
उनके सारे अन्तर्विरोधों
उनके भोलेपन की
गवाह हो.
तुम्हारी हर कहानी में
एक बला की खूबसूरत
और जहीन
लड़की होती है,
अपने ख़यालों में डूबी
दुनिया को तोलती
खटमिट्ठे अनुभवों से
खेलती
खुद की जिंदगी
सवालों के घेरों में
क़ैद,
फिर भी
अपने आज़ाद ज़ेहन में
यहीं कहीं
मेरे आसपास
घूमती.


यह कविता कुर्तुल-एन-हैदर की साहित्य अकादमी से प्रकाशित कहानी संग्रह "पतझर की आवाज़" से चंद कहानियाँ पढ़ने के दौरान अनायास रच गई.

Monday, December 6, 2010

दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्त्तमान शिक्षक नियुक्ति व्यवस्था

क्या आप दिल्ली विश्वविद्यालय में वर्त्तमान शिक्षक नियुक्ति व्यवस्था से खुश है? यदि ये साक्षात्कार बंद कमरों के बजाय सभी उपस्थित अभ्यर्थियों के समक्ष करवाए जाये या फिर उनकी विडियो रेकॉर्डिंग की जाये तो कम से कम नियुक्ति में पारदर्शिता सुनिश्चित हो सकेगी और अन्य अभ्यर्थियों को यह देखने का मौका मिलेगा की चयनित अभ्यर्थी वाकई में काबिल था या नहीं.

Thursday, December 2, 2010

Inventing popular culture: from folklore to globalization

Inventing popular culture:

from folklore to globalization
Wiley-Blackwell, 2003 - Social Science - 148 pages
John Storey, a leading figure in the field of Cultural Studies,
offers an illuminating and vibrant account of the development of popular culture.
Addressing issues such as globalization, intellectualism, and consumerism,
Inventing Popular Culture
presents an engaging assessment of one of the most debated concepts of recent times
A GOOD BOOK FOR REFERENCE....

Globalisation and tradition: Paradoxes in Philippine television and culture

Globalisation and tradition: Paradoxes in
Philippine television and culture
Josefina M. C. Santos
How has Philippine television impacted on the cultural identity of Filipinos? In turn, how has
Philippine culture shaped Philippine television? Around these two key questions revolve the
discussions contained in this article, which first situates the debate within the context of the larger
society in which both Philippine television and culture are developing.
Inasmuch as culture is socially determined, it is appropriate to seek to clarify the dynamics of the
society that contains both Philippine culture and television. Due especially to two developments -
rapid deterioration of the global environment, and the rapid advance in communication technology
- it has become even more urgent and necessary to view society as part of a global system.
Globalisation - the so-called increasing interdependence of societies and flows in capital,
products, people and ideas across national borders - has accentuated a global view of societies.
Dominant modernity and nationalism
Certain countries and economies - the United States, Western Europe, Japan, Australia, Canada
and now Korea, Singapore, Taiwan and Hong Kong - differ sharply in social structure from the
large number of societies comprising Africa, Latin America, Oceania and the rest of Asia.
It is generally accepted that the former countries or economies are industrialised or industrial, and
in addition, digitally driven. These societies are characterised by a distinct orientation towards
productivity - high output from low inputs. Supporting the high productivity goals of such industrial
or ?post-industrial? social systems are their scientific cultures - cultures that in theory and
practice place a premium and focus on the development and application of natural and social
science. Societies of this type greatly value success and achievement - the accumulation of
wealth based on high productivity, and of highly productive skills. Thus, merit - having the
necessary productive skills for certain jobs or positions - is a socially respected virtue.
Employment is, therefore, merit-based and professional.
In the industrial and post-industrial countries, nationalism is a key element in society and culture.
Nationals are expected to dominate local corporations, and nationally owned firms are expected
to dominate local industries and markets. People in the modern countries have even come to look
upon a number of their nationally produced commodities as cultural cum technological icons that
embody national greatness, evoke national pride, and deserve national protection--from American
cars, Japanese gadgets, German machines to French film. Under a culture of nationalism,
national languages dominate discourses in each of these countries, and locally produced artistic
forms with a distinctive ?national? flavour and character normally dominate the cultural scene. All
these norms in industrial and post-industrial societies go beyond mere values. They are
expressed and realised as a ?way of life? - as the dominant practices of these societies.
Pre-modern societies
But, in contrast, even under conditions of globalisation, societies and cultures in the poor
countries have in fact retained much of their pre-industrial features. Third World societies and
cultures tend to promote life ways, chances, norms and values based not on productivity but on
inheritance and commercial guile. In the Philippines, life ways and chances are largely defined by
one?s membership or non-membership in, access or non-access to, the buena familia, the upperclass
landed or merchant elites. Though public, the largely locally owned corporations are
basically family affairs, in which control is concentrated in the hands of family members and
cronies and then bequeathed from one generation to the next through inheritance.
These elites are the contemporary successors of the caciques, the colonial-era owners of large
Globalisation and tradition: Paradoxes in Philippine television and culture 1 of 7
landed estates, who magnified their wealth and power by entering into trade as exporters,
importers, wholesalers, and franchise-holders. It has become part of conventional wisdom that
those who have acquired or maintained their upper-class statuses have done so as a result not
only of inheritances, but also of their abilidad - the ability to capture and dominate markets as a
result of machiavellian trading skills involving monopolist strategies, rent-taking and wheeling-anddealing--
without the culture and practice of technical innovation, as of a Bill Gates. Economic
patronage is another norm in Philippine society. . Since colonial times, in return for small loans
and grants during times of emergencies, access to jobs, access to home lots or farm lots,
protection from personal enemies, they have been expected to owe to their padrinos (patrons) a
lifetime ?debt of gratitude? (utang na loob) in the form of various unpaid services and loyalty.
Jobs are considered not a right but a privilege granted to them by their padrinos, who either
employ them directly, or recommend them to friends and relatives for employment.
Filipino fatalism
The poor who comprise at least 70% of Philippine society cope with their poverty by embracing
an anti-scientific culture of fatalism and mysticism. Many Filipinos of various classes view their
lives to be governed by suwerte (good luck), malas (bad luck) and gulong ng palad (wheel of
fate). They regard their successes and achievements as suwerte and their failures or frustrations
as malas. Often they console themselves with the notion that it is simply life?s mysterious flow
that one miserable today will find fulfilment tomorrow, and vice-versa, and that this mysterious
wheel of change will somehow and some day bring them success.
Commerce of politics
Local as well as national politics remains dominated by political clans, who also comprise the
largest landowners or business barons in their respective regions. Again, inheritance rather than
merit is the key factor in choosing political candidates. Candidates are either members or
protégés of these landed or business elite families. Thus political posts are frequently dynasties,
whereby spouses, children and other relatives succeed the incumbent.
At the same time, Philippine politics and elections are also increasingly becoming a mercantile
transaction: politicians buy votes and dispense patronage largely through local ward leaders in
exchange for electoral support and loyalty. It is common political knowledge that to win key
political posts, politicians must muster the funds needed to buy the loyalty and support of local
ward leaders and their constituencies. The other side of the commercial transaction is that cronies
among big business elites finance the patronage election money and in return expect political
favours that protect or promote their respective businesses.
The merchant character of this set up lies not only in the fact that politicians are able to buy votes
cheaply - from 100 to 500 pesos per voter. More importantly, the merchant character lies in the
reality that the electorate tends to be short-changed in this transaction. With the graft in
government estimated by the Ombudsman to reach at least PhP 40 billion per year, the poor and
middle class tax payers lose more than they earn from this transaction.
Another merchant character of the Philippine patronage politics is the shortfall in delivery of
services versus promises. In modern societies, political parties and candidates promise reform
and changes, but in most cases they basically are able to deliver on these promises - prosperity
for the majority, and the maintenance of a large middle class. Philippine candidates seek to
attract votes with promises to reduce or eliminate poverty, to modernise society. But the
contrasting, typical experience of Philippine politics is that promises have rarely been realised and
in fact have led to exacerbation rather than reduction of poverty, a further widening rather than
narrowing of the gap between social reality and the goal of modernisation, a dwindling rather than
expansion of the middle class.
In contrast to modern societies where politics, political parties and elections are based on
articulation of issues and effective involvement of the middle class, Philippine politics is based on
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patronage coupled with mere image unsupported by substance. Philippine political parties tend to
be mere alliances among the business elite, and so tend to have identical programmes that offer
no real choice for the poor and middle-class electorate. What is then offered in the competition for
votes is an advantage in patronage (the more vote-buying money, the better the chances of
winning) and image. With the spread of mass communication, especially film, television and
tabloids, image-projection and political advertising, usually the work of public relations experts,
has increasingly been a key factor in Philippine elections on the national level.
Three of the last seven Philippine presidents were largely elected on the basis of their media
projection as ?men of the masses? and ?champions of the poor? - on pro-poor and populist
public media-driven images, two on ?nationalist? images, one on ?a democratising? image, and
another on a ?modernise? image. But because of the lack of a dominant critical political culture
and discourse, the hopes have more often than not proven to be false and the images have
turned out to be inaccurate and misleading in the end. Both the poor and middle class electorates
regard policy-making and political influence as the natural preserve of the upper classes, just as
the masses of subjects under colonial rule were expected to simply submit to policies and
decisions laid down by the colonisers and the cacique allies in government.
Active citizens
Civil society is active in the Philippines with the proliferation of non-government organisations and
private voluntary organisations. But civil society groups in the Philippines have a differential,
lopsided impact on policy based primarily on the classes they represent. Private local big
business organisations - representing upper-class interests - exercise a powerful clout and
influence on policy and public affairs. On the other hand, the effective impact of middle class
organisations - professionals, small business - on policy and public affairs is minimal, compared
to that the upper class groups.
Its minimal clout largely owes to the small size of the middle class, its subordinate role in
business, and its lack of resources for patronage and public relations. The situation is even more
negative in the case of under-class or lower-income class organisations. This differential, highly
skewed clout of civil society underscores the weakness or superficiality of democratic politics and
political culture in a pre-modern society as the Philippines.
Failure to modernise
In contrast to culture in the modern societies, a sense of nationhood has yet to dominate
Philippine society and culture since colonial times. This condition is rooted in three centuries of
Spanish rule and American colonisation, which retarded the growth of local industry and
engendered a deep inferiority complex. But what is popularly known in the Philippines as ?the
colonial mentality? has survived and in many ways even deepened in the postcolonial era. Behind
this complex and mentality has been a continuing failure of society to modernise, making it
inevitable for the country to remain dependent on foreign capital, products, technology, markets
and employment.
Four types of TV programme
It is this pre-modern, pre-democratic and pre-national culture and society that constitutes the
context of Philippine television today. It is this culture that resonates both loudly and subtly in
Philippine television. It is this culture that can be said to underlie what I call a symbiosis of four
basic types of content and form of television programmes which comprise the viewing fare of
Philippine audiences.
These types are:
∑ Foreign programs presented in their original, complete form.
Globalisation and tradition: Paradoxes in Philippine television and culture 3 of 7
∑ Hybrid basically foreign-produced programs partly modified to enhance local
reception.
∑ Hybrid locally produced programs largely imitative of foreign formats or based on
key foreign content input or elements.
∑ Locally produced programmes with local traditional content, or content espousing
local, traditional values.
The Filipino upper and upper-middle classes provide a captive market for American channels and
programming. They make up a majority ? 55% - of the country?s subscribers of cable television,
which, on the whole, is almost entirely (99%) geared to English-language, mostly foreign
programming. The familiarity of the upper and upper-middle classes with Western consumption
lifestyles make it easier for them to be accustomed to a variety of Western television
representations and media content - from language and idiom to fashion and settings. Though
based in a fundamentally different, pre-modern production social context and culture, the Filipino
upper and upper-middle classes paradoxically can relate to the modern culture in these Englishspeaking
societies represented in the television programs.
It is the similarity in consumer lifestyles and formal education that makes the Filipino upper and
upper-middle classes greatly receptive to foreign television productions in their complete, original
form. In turn, it is the contrast in consumer lifestyles, formal education and discourse experience
between the Filipino lower and lower-middle classes on one hand, and Western/foreign upper and
middle classes that prevents the former from easily receiving foreign television representations.
And yet, the Filipino lower and lower-middle classes are the major markets for global consumerproduct
corporations, which are also the major television and media advertisers. It is these two
realities that must be reconciled and matched - the local, folk culture of the lower-middle and
underclasses and their being the country?s major corporate consumer-goods market and
advertisers? target television audience.
Success of telenovelas
It is in this sense that the second type of programme - hybrid basically foreign-produced
programmes partly modified to enhance local reception - comes into the Philippine picture. Its
archetype is the Mexican telenovela dubbed in Tagalog/Filipino, a soap opera genre which has
attained phenomenal popularity and unprecedented ratings in the Philippines. The telenovela?s
appeal rests on three combined qualities. One, dubbed in Tagalog/Filipino, it is easily understood
by the grassroots. Two, it features mestizos and mestiza actors, fulfilling the colonial fancy of
Filipino viewers. Three, it depicts pre-modern, folk themes and settings.
In contrast to stories based on modern themes, the Mexican telenovela is attuned to the
predominant Filipino folk psyche precisely because of its pre-modern, largely folk character.
Globalisation and tradition: Paradoxes in Philippine television and culture 4 of 7
Filipinos of various classes identify with the character of the poor peasant woman who becomes a
landlord-merchant in the end - a fantasy in pre-modern social mobility and change.
The other Philippine archetype of the hybrid basically foreign-produced programme partly
modified to enhance local reception is the Japanese anime (cartoon) dubbed in Tagalog/Filipino.
The 1990s have seen a revival in the Philippines of the Japanese cartoon, creating a enormous
following among young Filipino television viewers. Its popularity today, which exceeds that in the
1970s, is due to another combination of qualities. One, its being dubbed in Tagalog/Filipino,
facilitating audience comprehension and acceptance. Two, the rich, attractive and dynamic
visuals of the anime made possible by advanced and expensive animation technology. Three,
their evocation of folk, pre-modern themes. Many of the Japanese animated characters most
popular with Filipino children, such as Sailor Moon and Streetfighters, are no longer
technologically-oriented, and in that sense, modern, but pre-modern in that they are endowed
with supernatural and mystical powers.
It is to the first and second types of programmes that Philippine-based television productions offer
either no real competition, or no competition altogether. In the first type, Philippine-based
productions, even if local producers wanted to, simply cannot replicate the Caucasian actors and
setting with credibility. The comparative advantage of the Mexican telenovela over Philippine
television drama is the markedly mestizo features of its actors and actresses. In the case of
Japanese animation, the Philippine entertainment business is still too socially ?underdeveloped? -
pre-modern and technologically backward - to produce any local competition to it.
But these two comparative advantages of foreign productions - high technological/financial
capabilities and mestizo facial features - are not so overwhelmingly decisive as to discourage a
range of local Filipino television production. Except in the case of animation, foreign productions
do not enjoy a technological/financial edge over local productions, the two leading Filipino-owned
television networks are able to buy Japanese, European or American state-of-the-art cameras
and transmission equipment needed to produce dramas, sitcoms, talk shows and news
programmes, and documentaries of high technical quality.
Local imitations
It is these strengths of local television production that allow for the third type of Philippine
television production - hybrid locally-produced programs largely imitative of foreign formats or
based on key foreign content input or elements. These include: (a) Musical shows or segments
largely based on the singing or playing of foreign songs and music; (b) Copycatting - the largely
uncreative imitation of foreign cultural formats, themes, plots, characters, and production in
general - is another significant trend in Philippine television. Following the tremendous global
popularity of modern American programs, especially among middle-class audiences, local
networks have come out with their own versions of Baywatch (Subic Bay), Dawson?s Creek
(Tabing Ilog, meaning riverside), Seventh Heaven (Munting Paraiso, meaning small paradise).
Because local folkways, relatively distant from direct foreign culture influence, predominate
among the most populous underclasses in Philippine society, it is inevitable, however, that
original forms of Filipino folk culture will find expression in local television. For this reason, the
fourth type of programmes - locally-produced programmes with local traditional content, or
content espousing local, traditional values - remains a force in Philippine television. The top-rating
noontime variety show, Magandang Tanghali, Bayan (Good Afternoon, People) is a hodgepodge
of games, a beauty contest, and singing and/or dance performances. In its most popular segment
so far, a prize-winning game called Pera o Bayong (Money or Basket), from about a hundred
prospective urban poor participants, one was chosen after several rounds of successfully
guessing the answers to extremely difficult questions, such as the scientific names of plants and
animals. Being a game of chance rather than skill, the contest was basically a gambling activity.
The last remaining contestant either won a prize in cash or kind amounting to $1,200 to $9,000.
Because the size of the jackpot was equivalent to from a year to seven years of an ordinary
labourer? wage, hundreds of urban poor lined up each day to apply as contestants. The
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programme provided a vicarious experience for the poor to escape from poverty out of ?sheer
luck? - in other words, by a fatalist or mystical rationale.
One source of the programme?s appeal was the effort of the network to generate comic value by
making the contestants appear as ridiculous as possible, either through their costumes, or their
inability to remember or pronounce the scientific names. In addition, the programme served to
project the image of the advertiser-sponsors and network as economic patron in the pre-modern
mould. In effect, the program exploited the poor as both talent and viewer, their economic
desperation, and the pre-modern society?s dominant poverty.
Hoy Gising is another programme that capitalises on the sheer pre-modern inefficiency and poor
quality of Philippine government services and fosters the pre-modern theme of patronage. It
highlights the poor conditions of public works/utilities, such as dilapidated roads, inadequate
drainage, and uncollected garbage, under the jurisdiction of local officials led by Metro Manila
mayors. Since these conditions are commonplace, the programme conveniently does not run out
of examples to feature each weekday. Planned as a wake-up call for local officials to pay
attention to these specific cases and to public service in general, it ends up heaping praise on
mayors and local officials for addressing these specific complaints, such as doing road repairs. In
the end, the programme is reduced to serving as political public relations image-building and votegetting
vehicles for incumbent mayors. These reactive actions which in the final analysis reflect
negligence in the first place and self-serving attempts to avoid further public embarrassment are
thus depicted as acts of goodwill and generosity instead. In effect, the programme serves to
promote a culture of pre-modern patronage.
Another Philippine trend not copied from American, European or Japanese television is the strong
direct year-to-year linkage between television entertainment and electioneering. This tie-up takes
two basic forms: one, the widespread hosting by incumbent and prospective government officials
of their own regular television shows or program segments as promotional leverage for the
electoral campaign; and two, the entry into electoral politics of a growing number of previously
non-politician celebrities from television as well as film, radio and recording.
Some of the programmes hosted by the incumbent or aspiring politicians are mere entertainmentoriented
?action? or drama programs. Others, including those of the incumbent president, vicepresident,
Senate president - are talk shows which focus on enhancing public image without
substance and promote patronage rather than engaging their audiences in critical political
discourse that question pre-modern state of affairs and traditional politics.
The growing bond between television entertainment and politics enhances rather than diminishes
the merchant quality of Philippine politics - populist or modernise images in exchange for
traditional or elitist realities, and votes and high hopes for change in exchange for low fulfilment of
expectations. It helps thwart rather than support the emergence of a real democratic political
culture and discourse, and a genuine civil society effectively involving a strong and large middle
class in policy making.
Duality of globalisation
Though the four types of programs are based on contrasting societies and cultures, they tend to
complement each other in Philippine television. This is simply because globalisation and premodernity
or tradition in the Philippines likewise complement one another. This complementarity
or symbiosis is basically two-pronged.
First, the largely pre-modern, pre-national state of culture and science which pervades Philippine
television favours the trend of globalisation of Philippine television from importation of
programmes to ownership and control of television stations and production of local programs.
With the larger society remaining chiefly pre-modern, Philippine television programmes remain
basically pre-modern in content, themes and values. Thus they can hardly at all compete in the
largest global television markets - modern economies and viewers who favour modern themes.
Globalisation and tradition: Paradoxes in Philippine television and culture 6 of 7
For that reason, Philippine television producers are marginal players in the arena of globalisation.
Due to the colonial hankering for Caucasian-looking characters, Philippine producers will not be
able to export to other Third World countries productions on the same scale as the Mexican
telenovela. The high and rising cost of foreign technology and currencies bars Filipino television
producers and network owners from competing with the Japanese in anime and helps drive them
to search for strategic foreign partners.
In the final analysis, it is the pre-modern, folk state of Philippine society that favours globalisation
of Philippine media. Yet it is also the pre-modern and folk character of Philippine society and
culture that requires globalisation of Philippine television - the entry of foreign direct investors in
local television - to take the form of programming that it has already begun to take - the symbiosis
of the four types of programmes discussed.
Second, globalisation in the form of the free flow of programmes of the first and second types and
formats and key content inputs in the programs of the third type does not promote modern,
national and democratic culture, and in fact tends to reinforce the long-dominant pre-modern, prenational
and pre-democratic Philippine culture.
Foreign television programs in the Philippines do not promote the scientific norms and values,
and the practice and culture of productivity that are at the core of modern social and cultural
systems. The American channels and programmes which dominate Philippine cable and free
television as well as American and British-produced songs are noted for their largely escapist,
entertainment-oriented content rather than for critical discourse, which raises their awareness of
audiences? social condition and encourages the effective involvement of citizens in what has
been termed the public sphere.
On the other hand, globalise, transnational television with the largest reach in the Philippines -
Mexican telenovelas and Japanese anime - as shown earlier, tends to promote traditional, premodern
rather than modern themes and values. The escapism - and lack of critical discourse - of
globalise television programmes support and complement rather than help reform or modernise
the Philippines? highly skewed, basically pre-modern character of its civil society, marked by the
effective exclusion of the middle class from policy making.
In the Philippines, unless social conditions are radically transformed, the Mexican telenovela
imbued with pre-modern escapist themes and values will most probably remain the benchmark
and leading standard of television drama production. There is no indication that future
globalisation-funded productions in the Philippines will abandon this trend. The search for
maximum ratings and advertising revenues make it logical for television production in the
Philippines, whether foreign or locally owned, to be grounded on pre-modern, traditional escapist
themes and values which blend in with the dominant folk, traditional escapist culture and milieu.
In short, the paradox persists and continues to unfold: in Philippine television, globalisation
originating from modern, and moreover, post-modern digital societies will develop in symbiosis
with a persistent, chiefly pre-modern, pre-national local cultural identity.
Globalisation

Inventing popular culture: from folklore to globalization

Inventing popular culture:

from folklore to globalization
Wiley-Blackwell, 2003 - Social Science - 148 pages
John Storey, a leading figure in the field of Cultural Studies, offers an illuminating and vibrant account of the development of popular culture. Addressing issues such as globalization, intellectualism, and consumerism, Inventing Popular Culture presents an engaging assessment of one of the most debated concepts of recent times.
A GOOD BOOK FOR REFERENCE....

The Politics of Culture

  • The Politics of Culture
  • Aijaz Ahmad
  • Social Scientist
    Vol. 27, No. 9/10 (Sep. - Oct., 1999), pp. 65-69
    (article consists of 5 pages)
  • Published by: Social Scientist
  • Stable URL: http://www.jstor.org/stable/3518104
The Politics of Culture

Postmodernized Cultural Globalisation: Threatening Folk Culture(s) in India Maidul Islam

  • Postmodernized Cultural Globalisation: Threatening Folk Culture(s) in India
  • Maidul Islam
  • Social Scientist
    Vol. 34, No. 9/10 (Sep. - Oct., 2006), pp. 48-71
    (article consists of 24 pages)
  • Published by: Social Scientist
  • Stable URL: http://www.jstor.org/stable/27644170
Postmodernized Cultural Globalisation: Threatening Folk Culture(s) in India

लोक संस्कृति


Ruhailkhand

लोक संस्कृति

किसी क्षेत्र विशेष में निवास करने वाले लोगों के पारस्परिक धर्म त्योहार, पर्व , रीति ,रिवाज, मान्यताओं , कला आदि को लोक संस्कृति का नाम दिया जाता है। लोक संस्कृति किसी क्षेत्र विशेष को अन्य क्षेत्रों से स्वतन्त्र पहचान प्रदान करती है। वर्तमान में यदि हम हरियाणा, राजस्थान, केरल, तमिलनाड़� , उड़ीसा इत्यादि प्रान्तों का स्मरण करते हैं तो उनकी लोक संस्कृति के आधार पर ।

http://tdil.mit.gov.in/coilnet/ignca/ruh01.htm

Dr. Rajeev Pandey

IGNCA 2004

लोकसंस्कृति का वर्तमान और लोकसंस्कृति का व्यापीकरण


बुन्देल खण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास

नर्मदा प्रसाद गुप्त

दिशा

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वर्तमान समाज में लोकमूल्यों और लोकाचारों का संक्रमण कुछ तेजी से हो रहा है। एक तरफ भौतिक मूल्य हावी हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ विज्ञानी बौद्धिकता। भौतिकता के प्रभाव की वजह से आध्यात्मिकता, नैतिकता और हार्दिकता का महत्त्व कम हुआ है। धर्म, खासतौर से कर्मकाण्डी धर्म से चिपटी संस्कृति के लिए अनास्था का भाव काफी पेला है। इसी वजह से पूजापाठ से जुड़ी लोकसंस्कृति उपेक्षा की शिकार होने लगी है। विज्ञानी विवेक ने उन्हीं भौतिक या लौकिक मूल्यों को स्वीकारा है, जो कसौटी पर खरे उतरे हैं। इसलिए अंधविश्वासों और अनुपयोगी घिसेपिटे आदर्शों का पानी अपने-आप उतर गया है और वे धीरे-धीरे गौण होकर विलुप्त हो गये हैं। लोक संस्कारों और लोकसंबंधों में अर्थ का महत्त्व काफी अंदर तक भिद गया है, जिससे उनकी पवित्रता, ममता और संबद्धता की भावना का क्षरण हुआ है।आर्थिक तंगी की वजह से कुछ छोटे-छोटे संस्कार अप्रचलित हो रहे हैं, बड़े और प्रमुख सिकुड़ते जा रहे हैं तथा अनिवार्य ऐच्छिक बन रहे हैं। दूसरी तरफ संस्कारों के आयोजन में प्रदर्शन की प्रवृत्ति छा गयी है, जिससे व्यय काफी बढ़ गया है। दहेज की प्रथा परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक समझी जाने लगी है। लोकसंबंधों पर अर्थ का इतना असर पड़ा है कि अच्छे ऊँचे प्रासादों, कीमती वस्राभरण, भौतिक समृद्धि के उपकरणों आदि के साथ-साथ लेन-देन के स्तर से हर तरह के संबंधों की नापजोख होती है। आशय यह है कि भौतिक मूल्यों ने काफी बदलाव ला दिया है।

������ देश के गणतंत्री विधान से स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के मूल्यों की घोषणा की गयी थी, लेकिन प्रजातांत्रिक मानसिकता का विकास जल्दी नहीं हो सका। आज इन मूल्यों का पक्षधर वर्ग विद्यमान हे, पर प्रभावशाली नहीं हो पाया। राजनीतिक दृष्टि से सत्ता-वर्ग और शासित-वर्ग के बीच बहुत चौड़ी दरार फट पड़ी है। सत्ता वर्ग का प्रभुत्व अपनी अहमन्यता के रंग में इतना डूबा रहता है कि वह समता और भाईचारे की परवाह नहीं करता। रँगे सियार की तरह अपने आचरण में कोई-न-कोई मुलम्मा चंढ़ाता रहता है। वह धर्मनिरपेक्षता की बात करता है और वोट माँगने के लिए धर्म का कटोरा ले जाता है। यहाँ धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है-विभिन्न धर्मों का सह-अस्तित्व। हर धर्म और उसकी मान्यताओं का सम्मान और राज्य का कोई अपना विशिष्ट धर्म नहीं । इसका सबसे ज्यादा प्रभाव बौद्धिक व्यक्तियों पर पड़ता है, फिर प्रयास करने पर आम आदमी भी इसके घेरे में बँध जाता है। ऐसी स्थिति में धर्म का सामाजिक नियंत्रण शिथिल हो जाता है। वस्तुत: धार्मिक कट्टरता और धर्मजन्य पाखण्डों से उत्पन्न विषम परिस्थितियों और धार्मिक पण्डों की लूट-खसोट से आम आदमी का मन काफी हताश हो चुका है। दूसरे, कार्यालयों, होटलों, बसों, रेलों आदि जैसी आम जगहों में जाति-पाँति, छुआछूत, पवित्रापवित्र आदि का भेदभाव अब समाप्त प्राय-सा है। पवित्रता और पुण्य अब व्यक्ति के वैयक्तिक जीवन तक सीमित रह गये हैं। इन कारणों से धर्म से जुड़े सांस्कृतिक समवाय (पैटन्र्स) काफी परिवर्तित हो चुके हैं। इस स्थिति से सजग होकर एक वर्ग धर्म की उदार और व्यापक मान्यताओं और रीतियों का प्रसार करने के लिए उठ खड़ा हुआ है। बहरहाल, द्वेंद्व और द्विविधा की दोनों स्थितियाँ भी मौजूद हैं और उनके साथ आम उपेक्षाओं की आँधी भी चल रही है।

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सामाजिक क्षेत्र में भी शक्ति किसी-न-किसी व्यक्ति के हाथ में रहती है। या तो उसके पास जन्म अथवा अर्जन से सामाजिक प्रतिष्ठा मिली हो या फिर वह पंच, सरपंच और किसी अन्य बड़े पद पर आसीन हो। यह शक्तिसम्पन्न व्यक्ति सामाजिक उत्सवों, त्योहारों और संबंधों को किसी-न-किसी रुप में प्रभावित करता है। रीति-रिवाजों, प्रथाओं और संस्कारों में सुधार या परिवर्तन करने का नेतृत्व अपने हाथ में लिये रहता है। लोकाचरण के परिष्करण और क्षरण, दोनों में उसी का हाथ होता है। सामाजिक दंड और पुरस्कार उसी की इच्छा की धुरी पर घूमते हैं। परिवार के मुखिया के अधिकार, परिवार के सदस्यों की भलाई के लिए होते हैं। लेकिन इस युग की आर्थिक विषमताओं से उपजी मानसिकता ने परिवार की संयुक्त व्यवस्था को टुकड़े-टुकड़े कर दिया है। पारिवारिक संबंधों के सूत्र बदल गए हैं। अब ममता, वात्सल्य, प्रेम, स्नेह आदि के पुराने साँचे चटक गये हैं। इसलिए लोकाचरण ने नये रास्ते खोज लिए हैं और नयी सवारियाँ भी।

गाँव और नगर के बीच के रास्ते पक्के बन गए हैं, जिन पर चलकर नगर गाँव में और गाँव नगर में घुस आता है। नगर ज्यादा चतुर है, क्योंकि उसने बाहर से आयातित और भीतर से अर्जित चतुराई के पाठ अच्छी तरह याद किये हैं, जबकि गाँव अपनी परम्पराओं के प्रति निष्ठा के कारण अपने धरौअल वस्रों को ही पहनता रहा है, क्योंकि शहर के लिए उसे वे ही दाय में प्राप्त हुए थे। नगरों का पश्चिमीकरण के प्रति मोह परम्परित संस्कृति की उपेक्षा का प्रमुख कारण है। उसके आकर्षण में जन्म और विवाह जैसे लोकसंस्कार अपना रुप ही बदल रहे हैं। जन्मोत्सवों में केक कटती है, प्रकाश से प्रदीप्त मोमबत्तियाँ बुझती हैं और लोकगीतों की जगह ' हैपी बर्थ डे टु यू' गूँजता है। विवाह के प्रति हमारी भावना अब पहले जैसी नहीं रही। स्वागत-समारोह के प्रदर्शन और दहेज की चकाचौंध से विवाह की असली धर्मिता एक कोने में दुबकी रहती है। बरात के पश्चिमी नृत्य और मण्डप के फिल्मी गीत एक नये संस्कार की राह दिखा रहे हैं। वेषभूषा, खानपान, शिष्टाचार की रीतियाँ आदि बाहरी अंगों के साथ-साथ दृष्टि और भावना भी बदलने लगी हैं। नये नृत्य, नये गीत और नये रंजन उभरने लगे हैं। नारी अब शिक्षित, दीक्षित और आत्मनिर्भर होकर अधिक स्वतंत्र हो गयी है। बाहर सेवारत और क्लब-जीवन की आदी नारी घरेलू संस्कृति से मुक्त होकर अपने को अधिक योग्य समझने लगी है। लेकिन इस बदलाव से तमाम विसंगतियाँ और कुंठाएँ नागफनियों की तरह हर घर में फूट पड़ी हैं और बाहर के बैठकी गमलों से बढ़कर भीतर की उर्वर क्यारियों तक जा पहुँची हैं। धीरे-धीरे कैक्टसों के खिलाफ गुलाबों की प्रतिक्रिया उभर रही है और लोकसंस्कृति का प्रत्यावर्तन जल्दी ही संभव है।

गाँव नगर के प्रभाव से नहीं बच सका। उसने नगर के बाबू की तरह वस्र पहने, घड़ी और ट्रांजिस्टर जैसे नये उपकरण लिये और फिल्मी तराने गुनगुनाते हुए चहलकदमी करना शुरु किया। नगर की तरह सजावट, रहन-सहन, भोजन-पेय और संस्कार स्वीकृत हुए। संस्कृति के बाहरी अंगों की छवि नागरी होती गयी, पर भीतरी आत्मा नहीं बदली। इतना अवश्य है कि उस पर कई तरह के दबाव उसके खेतों की मेड़ों तक आकर खड़े हैं। मुश्किल यह हे कि गरीबी की फसलें उगाते केत इन नये मेहमानों का स्वागत करने में असमर्थ हैं।

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एक विशेष सामाजिक संरचना का स्रोत आज का मध्यमवर्ग है, जो बहुत तेजी से उभर रहा है। वह भले ही विरासत में मिले त्यागपरक मूल्यों की उपेक्षा न करता हो या उनके प्रति उसका आक्रोश बहुत मुखर न हो, पर इतना अवश्य है कि वह भौतिक सुखों के भोग के लिए ही निरंतर दौड़ रहा है। अच्छा वेतन, मकान, सवारी, टी. वी. और सभी सुविधाएँ एक साथ प्राप्त करने के लिए उसकी महत्त्वाकांक्षा की चील मन के आकाश में रात-दिन मँडराती रहती है। कुछ भी न आया कि उसने झपट्टा मारा-केवल अपने, अपनी पत्नी और अपने बच्चों के लिए। दूसरों की चिन्ता नहीं। माँ-बाप, भाई-बहिन तक देहरी से बाहर, फिर समाज और देश तो बहुत दूर है। इसी जीवन-दृष्टि और पद्धति ने खण्डित व्यक्तित्वों, टूटते संबंधों, घरेलू त्रासदियों और अरक्षित मर्यादाओं को जन्म दिया है। चमक-दमक वाले रहन-सहन और दूसरों से होड़ लेती भोगोन्मुखी लालसाएँ, लोकाचरण और लोकमूल्य को बाहर और भीतर से प्रभावित करने में बहुत कुछ कारगर हुई हैं।

लोकसंस्कृति का आत्मसंघर्ष

ऐसी बदली हुई परिस्थतियों में लोकसंस्कृति की संघर्षधर्मी प्रवृत्ति का प्रधान हो जाना बिल्कुल स्वाभाविक है। पुराने और नये की द्वेंद्वात्मकता से ही वह प्रगति प्राप्त करती है और यह द्वेंद्वात्मकता अब और तेज हो गयी है। एक तरफ घर की बड़ी-बूढ़ी सास का दबाव इतना है कि वह बहुओं और पुत्रियों को अमावस-पूनो की दिया-बाती के लिए मजबूर करता है, जबकि दूसरी तरफ किसी विज्ञानशाला में सेवारत बहिन या भाई फायदा या उपयोगिता का प्रश्नचिन्ह लगाकर अपनी माता के मुख में ताला जड़ देते हैं। घर से बाहर का समाज भी दो वर्गों में बँटकर दो ध्रुवों को पकड़े हुए है। एक वर्ग लोकसंस्कृति की वास्तविकता से अपरिचित होता हुआ भी प्रेम, धर्म और जुड़ाव की दुहाई देकर पक्षधर बना है, जबकि दूसरा वर्ग अंधविश्वासों, रुढिबद्धताओं और विषमताओं की खोज करता हुआ लोकसंस्कृति के तलाक के मामले को कचहरी में पेश करने की शपथ लेता रहता है। इन दो वर्गों में संघर्ष की घण्टी बार-बार बजती है, पर तटस्थ रेफरी (निर्णायक) न होने की वजह से अखाड़ा सूना रहता है। तीसरा वर्ग, जो पक्ष या विपक्ष के कठघरे में खड़ा नहीं होना चाहता या खड़ा होना उचित नहीं समझता, तमाशाई मानसिकता के सहारे एक अलग रस में डूबता-उतराता रहता है।बहरहाल, लोकसंस्कृति को खुद लड़ना है और उसका आत्मसंघर्ष जारी है। जीत की कसौटी है उसकी प्रासंगिकता या उपयोगिता और हथियार है-उपयोगिता को सिद्ध करने वाला परखाव।

प्रासंगिकता और परखाव

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लोकविश्वास

बुन्देल खण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास

नर्मदा प्रसाद गुप्त

चिंतन

लोकविश्वास


लोकविश्वास लोक और विश्वास दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है-लोकमान्य विस्वास । वे विश्वास जो लोक द्वारा स्वीकृत और लोक में प्रचलित होते हैं, लोकविश्वास कहलाते हैं । वैसे विश्वास किसी प्रस्थापना या मान्यता की व्यक्तिपरक स्वीकृति है, लेकिन जब उसे लोक की स्वीकृति प्राप्त हो जाती है, तब वह लोक का होकर लोकविश्वास बन जाता है । प्रश्न उठता है कि लोक की स्वीकृति कब और कैसे मिलती है । वस्तुत: विश्वास (व्यक्तिपरक या वैयक्तिक) और लोकविश्वास में अंतरक्रिया
(interaction) होती रहती है । कोई भी व्यक्तिपरक विश्वास समाजीकरण की प्रक्रिया से गु कर सामूहिक या सामाजिक होता है । अतएव लोकविश्वास सामूहिक अनुभव का ही परिणाम है । एक उदाहरण पर्याप्त है । प्रसीद्ध वैज्ञानिक गौलीलियो (१५६४-१६४२ ई.)के पहले बाइबिल जैसे पवित्र ग्रंथ से प्रमाणित विश्वास था कि पृध्वी अपने स्थान पर अडिग है और सूर्य उसके चोरों ओर घूमता है । गौलीलियो ने इसके विपरीत यह स्थापित किया कि सौर-मंडल का आधार-केन्द्र सूर्य है और उसका उगना एवं अस्त होना पृध्वी के घूमने के कारण प्रतीत होता है । दरअसल, यह उसका वैयक्तिक विश्वास था, और इसकी वजह से उसे धर्मविरोधी कहा गया तथा उस पर धर्म के विरुद्ध प्रचार करने का आरोप मढ़ा गया । परंतु बाद में, यह व्यक्तिपरक विश्वास लोकविश्वास के रुप में परिणत हो गया । वैज्ञानिक अनुभवों के प्रमाण की परख ने लोक को विश्वास की परिधि में लाकर खड़ा कर दिया और धीरे-धीरे विश्वलोक ने अपनी स्वीकृति का मोहर लगा दी ।

उक्त उदाहरण से एक तध्य और स्पष्ट हो जाता है कि इस विशिष्ट विश्वास का जन्म गौलीलियो के समय १६वीं शती में हुआ था और फिर उसका विकास होता गया । दूसरे, लोकविश्वास एक गतिशील तत्त्व है । लोक की आवश्यकता के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है । कभी-कभी उसका रुप बदलता है, तो कभी उसके स्थान पर दूसरा खड़ा हो जाता है । परिवर्तन की दिशा का नेतृत्व पहले व्यक्ति में निहित लोकशक्ति करती है, बाद में लोक । सूक्ष्मता से देखा जाय, तो लोकविश्वास की जड़ लोकमान्यता है और लोकमान्यता आधारहीन कभी नहीं होती । या तो उसका आधार वेद, पुराण या लोकमान्य ग्रंथों में लिखा कोई प्रमाण या साक्ष्य होता है या फिर लोक के बीच से आया कोई लोकमान्य तर्क या प्रमाण । बहरहाल, बिना किसी ठोस आधार के लोकविश्वास का उद्भव नहीं होता ।

सर्वप्रथम पौराणिक लोकविश्वासों के उदाहरण लेना उचित है । घड़े या दौने में मानव का उत्पत्ति का लोकविश्वास पुराणों के साक्ष्य पर टँगा रहा, फिर भी उसके विरुद्ध शंकाओं और तर्कों की चुनौती खड़ी होती रही और उसे कई बार नकारा गया । नये बौद्धिक जागरण ने उसे बिल्कुल गौण बना दिया, लेकिन नवीन वैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परखनली में भी जीवोत्पत्ति होती है और इस आधार पर वह पुराना लोकविश्वास पुन: संजीवनी पा गया है । दूसरी तरफ, शेषनाग के फन या कच्छप की पीठ पर पृध्वी के रखे होने का लोकविश्वास अब लोकमान्य नहीं रहा । यह बात अलग है कि वह एक सीमित लोक में आज भी प्रचलन में हो । तात्पर्य यह है कि पौराणिक लोकविश्वासों को ज्यों-का-त्यों मान लेना या उनके संबंध में कोई प्रश्न न करना इस युग में संभव नहीं रहा । यहाँ तक कि देवी-तेवताओं से संबंधित अद्भुत या चमत्कारपूर्ण लोकविश्वासों की चीड़-फाड़ होने लगी है और आस्था पर आधारित लोकविश्वासों के लिए नये-नये तर्क खोजे जा रहे हैं ।

लोकानुभवों से अर्जित स्थापनाओं या परिणामों के लोकमान्य होने से जो लोकविश्वास हर युग में बनते रहते हैं, उनका संबंध तत्कालीन विशिष्ट परिस्थितियों से रहता है और जब वैसी ही परिस्थितियाँ आती हैं, तब वे लोकसिद्ध विश्वास अपने आप उभरते हैं । एक पुरानी आरजा देखें-

तीतुर-बारी-बादरी, बिधवा काजर-रेख ।

बौ बरसै, बौ घर करै, जामें मीन न मेख ।।

सहदेव या किसी दूसरे लोककवि ने लोकविश्वास को पद्य में गूंथकर लिखा है कि तीतर के पंखों जैसे बादल अवश्य बरसते हैं और अपने नेत्रों में काजल लगाने वाली विधवा किसी-न-किसी को जरुर रख लेती है । यह लोकविश्वास एक विशिष्ट अनुभव का प्रत्यक्ष परिणाम है, जो आज भी सत्य है । यही कारण है कि यह लोकप्रचलन में हमेशा रहा है । ऐसे लोकविश्वास लोकजीवन के यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं और लोकसंस्कृति की रेखाएँ निर्मित करते हैं । इन्हीं के समानांतर कुछ लोकविश्वास लोकमूल्य या लोकादर्श की नींव के रुप में अपना विशेष महत्त्व रखते हैं । एक-दो उदाहरणों से इस तध्य की पुष्टि हो जाएगी । बहुत प्राचीन लोकविश्वास है की रणखेत में जूझने वाले वीर सीधे स्वर्ग जाते हैं अथवा उनकी कीर्ति हमेशा रहता ही । इस लोकविश्वास पर ही वीरता का आदर्श या लोकमूल्य जीवित है । विश्व के सभी देशों, धर्मों जातियों और वर्गों में कर्म से संबंधित एक लोकविश्वास है कि कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है । जो अच्छे कर्म करता है, उसे अच्छा फल मिलता है और जो बुरे कर्म करता है, उसे बुरा फल । इस आधार पर मानव को अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है और कर्म का मूल्य या आदर्श बनता है । धर्मों में पुण्यों से मोक्ष मिलता है और पुण्यों का अर्थ है अच्छे कर्म । इस तरह लोकविश्वासों के आधार जहाँ नैतिकता में मिलते हैं, वहाँ धर्मों में भी निहित रहते हैं । एक बहुत स्पष्ट तध्य यह भी है कि लोकविश्वास उपयोगिता से जुड़े रहते हैं । इसका प्रमाण वृक्ष-संबंधी लोकविश्वास है । वृक्षों पर देवों का वास, वृक्षों की पूजा, बेलपत्र शिव का आहार, बाँस जलाने से वंश का नाश, आँवले की पूजा से पापों का नाश, तुलसीदल मुँह में डालने से मोक्ष, महुआ-पुजा से वर-प्राप्ति आदि लोकविश्वासों का मूल कारण वृक्षों की सुरक्षा है । आदिमानव की प्रारंभिक अवस्थिति से लेकर आज के इस अणु-युग के उत्कर्ष तक वृक्षों की उपयोगिता सदैव बनी रही, इसीलिए वृक्षों को काटने से बचाने के लिए ये लोकविश्वास धीरे-धीरे विकसित हुए थे । अगर लोक से उनकी मान्यता समाप्त हो जाती है, तो सभी जंगल वृक्षविहीन होकर अपने अस्तित्व को दाँव पर लगा देंगे । इन लोकविश्वासों के संदर्भ में आज की वनसुरक्षा की समस्या परखी जा सकती है । प्राचीन मान्यता थी कि एक वृक्ष लगाने से एक संतान के पालन-पोषण का फल मिलता है या सौ गायों के दान का पुण्य होता है । लेकिन आज वे मान्यताएँ धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं । अब तो पुण्य या सुकर्म-फल नापने के पैमाने ही ओझल हो गये हैं । पहले उनके मापक थे यज्ञ, कन्यादान, संतान-पालन, गोदान आदि, लेकिन उनसे संबंधित लोकविश्वासों के अध:पतन से वे महत्त्वहीन हो गए हैं ।

परम्परा से प्राप्त लोकविश्वास भी प्रचलन में रहते हैं । उनमें कुछ ऐसे हैं जो आज भी किसी-न-किसी रुप में उपयोगी सिद्ध होते हैं, क्योंकि वे मानव-मन के किसी छोर से बँधे रहते हैं । भाग्य-संबंधी लोकविश्वास इतने मनोवैज्ञानिक हैं कि जहाँ मन की पहुँच नहीं हो पाती, वहाँ वे पहुँचकर मन को संतोष देते हैं । यदि कोई व्यक्ति निराशा और पीड़ा की चरमसीमा के शिखर पर खड़ा है और उसे कोई समाधान नहीं सूझता, तो भाग्य पर उसका विश्वास उसे एक नयी संतृप्ति देता है, जिससे वह चरम सीमा के आरोह को पार कर लेने की शक्ति या भीतरी ऊर्जा पा लेता है । ' भाग्य में ऐसा ही लिखा था' का विश्वास उसे सहनशीलता, धैर्य और शांति देता है तथा मस्तिष्कघात से बचाता है । इसी तरह के मनोचिकित्सक लोकविश्वास पुनर्जन्म पर आधारित हैं । प्रत्येक मनुष्य मरने के बाद फिर जन्म लेता है, इस मान्यता से मृत्यु का स्थायी भय दूर हो जाता है । इसी तरह ' इस जन्म के कर्मों का फल दूसरे जन्म में मिलता है' के विश्वास से कर्मफल न मिलने की निराशा या अच्छे कर्मों से अच्छा परिणाम न पाने पर उठी मन की टूटन शांत हो जाती है । इनके अतिरिक्त शकुन-अपशकुन, भूत-प्रेत, जंत्र-मंत्र आदि संबंधी ऐसे लोकविश्वास हैं, जो उपयोगी सिद्ध न होने के कारण अंधविश्वास की कोटि में आ गए हैं । वैसे कभी-कभी उनका मनोवैत्ज्ञानिक प्रभाव उनके अस्तित्व की अहमियत पुष्ट करता है । बच्चे को न लग जाने पर जलती बाती से जब न उतारी जाती है, तब बच्चा प्रकाशवृत्तों को देखकर चमत्कृत होता है और रोना त्याग देता है । यह ठीक है कि अंधविश्वासों में प्रामाणिक आधार नहीं होते, लेकिन जब वे लोकविश्वास के रुप में जन्मे थे, तब उनके आधार निश्चित ही थे । आज वे घिस-पिट गये या विस्मृत हो चुके हैं और समझ के बाहर हैं, इसीलिए वे 'अंध' विश्वास बन गए हैं ।

संक्षेप में, लोकविश्वास की कसौटी लोक है । लोकस्वीकृति या लोकमान्यता न मिलने पर लोकविश्वास गौण होकर लुप्त हो जाता है । अतएव उसका एक छोर लोकमान्यता है, जिसके बिना उसका अस्तित्व नहीं बनता । दूसरी तरफ लोकविश्वास जब अपनी व्यावहारिक स्थिति से उठकर सैद्धांतिक बनता है, तब लोकमूल्य के रुप में परिणत हो जाता है । लोकविश्वास की पूरी यात्रा को निम्न प्रकार से दर्शाया जा सकता है-

प्रमाण+ अनुभव> प्रस्थापना (व्यक्ति द्वारा)> विश्वास (व्यक्ति की स्वीकृति) > लोकमान्यता> लोकविश्वास

लोकविश्वास की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है । लोकविश्वास लोकसंस्कृति के विधायक तत्त्व हैं । एक अंचल के लोकविश्वासों की सामूहिक इकाई उस अंचल की लोकदृष्टि का तटस्थ चित्र प्रस्तुत करती ही है, साथ ही उसके लोकादर्शों या लोकमूल्यों की रेखाओं को भी स्पष्ट रुप में रखती है । इस प्रकार लोकविश्वास समाज और संस्कृति के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।

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वर्गीकरण

स्थूल रुप में लोकविश्वासों के दो रुप होते हैं-एक वह है जो प्रामाणिक आधारों पर प्रतिष्ठित रहता है और दूसरा वह जो प्रामाणिक आधार से वंचित रहता है । प्रथम वर्ग के लोकविश्वासों को भी दो वर्गों में रखा जा सकता है-प्रथम के अंतर्गत वे लोकविश्वास आते हैं, जो पौराणिक मान्यताओं या तध्यों पर आधारित होते हैं और दूसरे में वे होते हैं, जो लोकानुभवों, लोकप्रमाणों और लोकमान्यताओं पर निर्भर करते हैं । द्वितीय वर्ग के वे हैं जिनके प्रामाणिक आधार नहीं मिलते और बिना किसी तर्क या तध्य के परम्परा से प्राप्त होने के कारण ही जीवित रहते हैं । लेकिन जब लोक उन आधारहीन लोकविश्वासों में निरर्थक तत्त्वों की बाढ़ देखता है और लोक में उनकी उपयोगिता नहीं पाता, तब वह उन्हें स्वीकृति की परिधि से बाहर कर देता है । इतने पर भी वे छुटपुट सीमित दायरे में चलते रहते हैं और समझदार या उनसे अप्रभावित वर्ग उन्हें 'अंधविश्वास' के नाम से अभिहित करता है ।

वस्तुत: लोकविश्वास इतने अधिक और इतने विविध हैं कि उन्हें वर्गबद्ध करना कठिन है, फिर भी अध्ययन की सुविधा के लिए निम्न वर्गीकरण किया गया है-

१. मानव और जगत् संबंधी लोकविश्वास

२. प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास

३. धार्मिक लोकविश्वास

४. अतिप्राकृत लोकविश्वास

५. कृषि-संबंधी लोकविश्वास

६. ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास

७. घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास

८. शकुनापशकुन

९. स्वास्थ्य-संबंधी लोकविश्वास

१०. नीतिपरक लोकविश्वास

११. अंधविश्वास

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परम्परा और प्रगति

'पथरीलौ पिया तोरो देस, मोयी अनी तौ मुरक गयी बिछिया की' गाती ग्रामवधू बुंदेलखंड की पथरीला-कँकरीली धरती को इसलिए कोसती है कि उसके बिछिया की अनी मुरक जाती है । शायद उसका विश्वास यहाँ आते ही बदलने लगता है, क्योंकि इस भूमि की संस्कृति किसी को बदलने की अपार क्षमता रखती है । अपने लोकविश्वासों की दृढ़ता के कारण । यहाँ के लोकविश्वास बहुत प्राचीन हैं । आदिम मानव की प्रारंभिक आस्थाओं से लेकर आटविक या वन्य संस्कृति के मूल्यों तक पुलिंदों, शबरों, गोंड़ों आदि अनार्य-जातियों से हिलमिल कर ये विश्वास-शिशु बड़े हुए हैं । दाँगी, राउत, खपरिया जातियों के साथ खेलकर उन्होंने आर्यों के आश्रमों में शिक्षा पायी और नाग, वाकाटकों, शुंगों आदि के संरक्षण में संपुष्ट होकर चंदेलों की कल्पवृक्षी छाया में वे युवा हो गए । फिर जैन, बौद्ध, इस्लाम-धर्मों के प्रभावों में साँस लेते हुए अपनी जीवन-यात्रा जारी रखी और बुंदेलों, मराठों, अंग्रेजों आदि के साथ आगे बढ़ते गए । तात्पर्य यह है कि लोकविश्वासों की यात्रा कईं पड़ावों पर ठहरकर आगे बढ़ी है और आज भी अपने सारे संघर्षों के बावजूद निरंतर गतिशील है । इस गत्यात्मकता और ऐतिहासिक सचेतनता को सामने रखकर ही लोकविश्वासों का परीक्षण आवश्यक है ।

इसमें संदेह नहीं है कि लोकविश्वासों की एक दीर्घ परम्परा रही है और उनकी व्यापक परिधि में आदिम, वैदिक, पौराणिक, मध्ययुगीन और आधुनिक भावनाओं तथा चिन्तन के कई स्तर वर्तमान हैं । अतएव उनमें पुराने और नये विविध तत्त्वों का संघटन स्वाभाविक है । एक तरफ परम्परित तत्त्वों की आधारभूमियाँ हैं, तो दूसरी तरफ बदलाव की गतिशील दिशाएँ । एक तरफ परम्परा का अनुसरण है, तो दूसरी तरफ प्रगति का चाव । परम्परा और प्रगति के तानों-बानों से ही लोकविश्वासों की बुनावट होती रही हे, अतएव उन्हें रुढिबद्ध, परम्परित और स्थिर मान लेना उचित नहीं है । कुछ लोकविश्वास ऐसे हैं, जो स्थिर रहे हैं, लेकिन उनके स्वरुप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन हुआ है । कुछ बिल्कुल बदल गए हैं, क्योंकि लोक ने उनकी मान्यता निरस्त कर दी है । इस रुप में लोकविश्वासों का अपना इतिहास रहा है, जिसे अनदेखा करने से उनके साथ अन्याय होगा ।

युग-चेतना की दृष्टि से देखा जाय, तो लोकविश्वासों में तत्कालीन लोक के विश्वासों की सच्ची तस्वीर मिलती है, जिससे उस समय की लिकसंस्कृति और लोकचेतना की सही दशा का पता चलता है । अगर किसी अंचल की लोकसंस्कृति का हृदय और मस्तिष्क एक साथ परखना हो, तो उसके लोकविश्वासों को जानना अत्यंत आवश्यक है । लोकविश्वासों के विकास की रेखाएँ लोकसंस्कृति के इतिहास का रेखाचित्र अंकित करती हैं और लोक की प्रगति के आरोह-अवरोह का लेखा बताती है । यहाँ हम लोकविश्वासों के हर वर्ग का क्रमिक विकास सामने रखते हुए उनकी परम्परा और प्रगति का अध्ययन करेंगे और उनके इतिहास को रेखांकित करते हुए उसके सही स्वरुप का चित्र रखोंगे ।

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आदिकाल

इस लेख में आदिकाल से तात्पर्य उस कालखंड से है, जिसमें प्रागैतिहासिक से लेकर रामायण-काल तक के लोकविश्वासों के उद्भव और विकास का संपूर्ण लेखा-जोखा आ जाता है । इस युग में बुंदेलखंड आदिवासी लोकसंस्कृति का पालना रहा है । यहाँ पुलिंद, निषाद, शबर, रामठ, राउत और उनके बाद गोंड़, कोल, भील, सहारिया जैसी जनजातियाँ मूल निवासी होने के कारण आदिकालीन लोकविश्वासों को ढ़ालने में प्रमुख रहीं । रामायण-काल के अंत में आर्यों के लोकविश्वास आश्रमों से निकलकर बाहर आए और उन्होंने लोक को प्रभावित करना शुरु कर दिया । अतएव यह युग इस अंचल में आदिवासियों के लोकविश्वासों का युग है।

प्रागैतिहासिक लोकविश्वासों का अध्ययन गुहाचित्रों के आधार पर संभव है । छतरपुर (जटाशंकर, भीमकुंड, देवरा, किशुनगढ़), पन्ना (बराछ-पंडवन, इटवा, मझपहरा-टपकनिया, हाथीदौल, पुतरयाऊ घाटी, कल्याणपुर-बिलाड़ी), सागर (आबचंद, नरयावली, भापेल, बरोदा), रायसेन (बरखेड़ा, खरवई, हाथीटोल, पुतलीकरार) और होशंगाबाद (आदमगढ़, पंचमढ़ी) में स्थित शैलाश्रयों में प्राप्त चित्रों से स्पष्ट है कि उस समय पशु, आयुध, शिकार और आमोद-प्रमोद-संबंधी विश्वासों का विकास हुआ था और वे प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित थे । शिकार मुख्य आजीविका थी, इसलिए पशुओं का सामना, भोजन और उसके बाद गीत-नृत्य-सब समूह में किये जाते थे । निश्चित है कि 'सहकारिता' का विश्वास प्रधान रहा और साथ ही हींसक पशुओं से रक्षा के लिए शारीरिक वीरता का भी । 'प्रकृति से रक्षा' के प्रयोजन में प्रकृति-पूजा-संबंधी लोकविश्वासों का उद्भव भी इसी समय हुआ । ये लोकविश्वास धर्म के अंग नहीं थे, वरन् उनका आधार 'उपयोगिता' और 'क्षति' थे । धीरे-धीरे प्रकृति के उपयोगी अंग लोकदेवों में परिवर्तित होते गए । उनके लिए दी जा रही फल या माँस की भेंट 'बलि' के रुप में स्वीकृत हुई । गुहाचित्रों में प्रकृति की वस्तुओं के अंकन से उनकी प्रकृति-पूजा का भाव प्रमाणित होता है ।

गुफा-युग के बाद आदिवासी मैदानों में उतर आए और कृषि-युग में नाना प्रकार के लोकविश्वास जन्मे तथा पलपुस कर बड़े हुए । पशु, जल, नदी, वर्षा और पशुपति एवं जलदेवता की पूजा इसी समय शुरु हुई । भूदेवी या भुइयाँ रानी को फसल की उत्पादक देवी की मान्यता मिली । कृषी, धर्म और अतिप्राकृत विषयक लोकविश्वास इसी समय लोक में फैले । वस्तुत: लोकविश्वासों का इतिहास एक समस्या है, क्योंकि उनके लोकप्रचलन के प्रमाण दुर्लभ हो गए हैं ।

आदिकाल के लोकविश्वासों का सही स्वरुप स्थिर करने के लिए इस अंचल के गोंड़ों, सौंर, भील, सहारिया आदि का सर्वेक्षण जरुरी है । गोंड़ों के लोकविश्वास 'भय' की मानसिकता से फूटे हैं । इसीलिए हर 'भय' का एक लोकदेवता उनकी सर्जना का अंग है । प्रकृति की सभी शक्तिसंपन्ना वस्तुओं की पूजा उनके जीवन की आस्था है । उनका विश्वास है कि यह संसार ही सब कुछ है, इसके सिवा दूसरा लोक नहीं । संसार का सृजन और संचालन बड़े देव करते हैं, उन्हीं को लोकगीतों में परभू (प्रभु) कहा गया है । प्रभु की माया संसार में अनेक लीलाएँ करती हैं । गोंड़, केवट, ब्राह्मण, क्षत्रिय-सब जातियाँ उसी की बनाई हैं । मानव का शरीर क्षणभागुर है । उसका सबसे बड़ा सुख मानसिक संतोष है, जो अपने धंधे (कर्म) के बाद मिलता है । इस मानसिकता के बावजूद गोंड़ छोटी-बड़ी बाधाओं से भयभीत रहते हैं और उन्हें दूर करने के लिए झाड़-फूँक, जादू-टोना और जंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं । उनकी मान्यता है कि बीमारियाँ झाड़-फूँक, जंत्र-मंत्र से ठीक हो जाती हैं ।

आश्चर्य ते यह है कि हमारे बहुत से शकुन-अपशकुन गोंड़ों से आए हैं । उदाहरश के लिए पुरुष का दाहिना ओर स्री का बायाँ अंग फड़कना, किसी काम के लिए जाते समय पानी से भरा घड़ा या मछली लिए ढीमर अथवा बछड़े को दूध पिलाती गाय मिल जाना शुभ है । ये शकुन बुंदेलखंड में यत्र-तत्र आज भी प्रचलित हैं । इसी तरह सामने खाली घड़ा दिखना, काना मिलना, बिल्ली का रास्ता काटना, निकलते समय सामने छींक होना, कौआ सिर पर बैठना आदि अशुभ गोंड़ों में प्रचलित रहै हैं । कुछ भविष्यसूचक विश्वास भी गोंड़ों में थे और आज भी हैं, जैसे गौरैया का धूल में लोटना, बगुलों का एक पंक्ति में उड़ना और चंद्रमा के चारों तरफ मंडल बनना वर्षा की सूचना देता है ।

सौंरों का विश्वास है कि महादेव ने हल, बैल और संसार की सृष्टि की है । जिस तरह गोंड़ कर्म और भाग्य पर विश्वास करते हैं, उसी तरह सौंर भी । सौंर प्रेतयोनि को मानते हैं । उनका विश्वास है कि मनुष्य मृत्यु के बाद प्रेतयोनि पाता है, इसीलिए वे मृतक को खेतों के पास या सागैन के वृक्षों के नीये गाड़ते हैं । मृतक की आत्मा खेतों और वृक्षों की रक्षा करती है। सौंर जंत्र-मंत्र और जादू-टोना में कुशल होते हैं । दृष्ट आत्माओं को मंत्र- और जादू से बाँध देते हैं । भील भी आत्मवादी हैं । वे आत्मा की अमरता में विश्वास रखते हैं । उनके अनुसार पर्वतों नदियों, वनों-सभी में आत्माएँ हैं । दृष्ट आत्माएँ मनुष्य को सताती हैं । बीमारी या दूर्घटना किसी देवता के क्रोध का फल है अथवा भूत या चुड़ैल का कार्य है । तात्पर्य यह है कि आदिवासियों के लोकविश्वासों में काफी समानता मिलती है । बुंदेलखंड के उत्तरी क्षेत्रों में बसनेवाली सहरिया जनजाति के पाप-पुण्य और पवित्र-अपवित्र-संबंधी लोकविश्वास पूरे प्रदेश में प्रचलित हैं । गाय की हत्या सबसे बड़ा पाप है, जिसके दंडस्वरुप जहाँ जाति-बिरादरी में रोटी देनी पड़ती है, वहाँ गंगा-स्नान भी अनिवार्य है । मासिक धर्म, बच्चे का जन्म या परिवार में किसी की मृत्यु अपवित्रता का कारण माना जाता है और व्यक्ति या परिवार पवित्र होने पर ही शुभ कार्य कर पाता है । इस प्रकार बहुत-से विश्वास एवं अंधविश्वास इन्हीं जनजातियों के प्रभाव से विकसित हुए हैं ।

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सांस्कृतिक संघर्ष

रामायण-काल में इस अंचल की भूमि पर तीन संस्कृतियों का संघर्ष रहा । एक थी प्राचीन जनजातीय संस्कृति, दूसरी यक्ष संस्कृति और तीसरी आर्यों की अश्रमी संस्कृति । बुंदेलखंड की जनजातियाँ रक्ष संस्कृति के प्रतिनिधि राक्षसों से निरंतर युद्ध करती रहीं, पर वह संघर्ष बाहरी था, इसलिए उन पर रक्ष संस्कृति का असर नहीं हुआ । असली संघर्ष त्रिकोणीय था । गोंड़ों के देवता 'ठाकुर' हर गाँव में प्रतिष्ठित थे, जिनसे गोंड़ी लोकसंस्कृति का उत्कर्ष प्रकट होता है । लेकिन 'गाँव-गाँव कौ ठाकुर' के साथ 'गाँव-गाँव कौ बीर' जुड़ा होने से यक्ष संस्कृति का प्रतिष्ठा का लोकप्रमाण भी मिलता है । रामायण के उत्तरकांड में भी यक्षों का साक्ष्य है । अतएव इस अंचल में सबसे पहले यक्षों के विश्वासों ने प्रवेश किया था । एक तो यक्षों का सुंदर, स्वस्थ और शक्तिमान शरीर तथा चमत्कारिक रुप था, दूसरे उनके संबंध में यह लोकविश्वास प्रचलित था कि उनके पास 'अमृत' है, जिसे पीने पर मनुष्य अमर हो जाता है । इसी 'अमृत' या 'अमरत्व' के लिए इस अंचल में यक्ष-पूजा प्रारंभ हुई । महाभारत में 'कुबेर' (यक्ष) को अमरत्व, धन और लोकपालन का स्वामी बताया गया है । इस तरह यक्ष भौतिक और अभौतिक सुखों के वरदानी रुप में पूजित हुए । लोक का विश्वास था कि अमृत से वृद्धावस्था और मृत्यु की पीड़ा का समाधान मिल जाता है । यक्ष को प्रसन्न करने के लिए, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और प्रार्थना (संगीत) को पूजा की विशेष सामग्री के रुप में स्वीकार किया गया । इस वजह से पूजा में 'बलि' का विश्वास कुछ कम हुआ । साथ ही आदिवासी इहलौकिकता-संबंधी विश्वासों से कुछ ऊपर उठे ।

आर्यों की आश्रमी संस्कृति का इस अंचल में आना एक ऐतिहासिक घटना है क्योंकि उसके मूल्यों मान्यताओं और विश्वासों ने यहाँ की लोकसंस्कृति को परिवर्तन के द्वार तक पहुँचाया है । रामायण की कथा में शबरी द्वारा राम का स्वागत जहाँ आर्यों के विश्वासों का स्वागत है, वहाँ महाभारत के आदि पर्व में वर्णित चेदिनरेश उपरिचर वसु द्वारा इंद्र की पूजा के लिए इंद्रमह का आयोजन-१ आर्यों के धार्मिक विश्वासों की स्वीकृति है । लेकिन इंद्र के साथ-साथ आदिकालीन देव शिव की पूजा भी जारी थी । बुंदेलखंड में यक्षों के चबूतरों का स्थान शिव के चबूतरों ने ले लिया था । इंद्र की पूजा लोक में उतनी प्रचलित न हो सकी जितनी शिव की । वासुदेव कृष्ण ने इंद्र की जगह पर गोवर्द्धन की पूजा को प्रतिष्ठित किया था । चेदि यादवों के अधीन था और उस समय चरागाही लोकसंस्कृति के संस्कार प्रबल थे । यक्ष और शिव के साथ-साथ कारसदेव के प्रति पशुपालकों की आस्था दृढ़ थी । वन, वृक्ष, नदी आदि की पूजा के साथ नाग-पूजा भी बहुत प्राचीन है और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी तभी से प्रचलित रहे हैं । वस्तुत: जहाँ शिव के साथ नाग जुड़े हुए थे, वहाँ वैदिक देवता रुद्र का सान्निध्य भी उन्हें प्राप्त था । विष्णु का संबंध शेषनाग से स्थिर हो जाने पर दो तरह के विश्वासों का समन्वय एक महत्त्वपूर्ण घटना थी । नागों का संबंध पहले क्षेत्र से था, बाद में धन से हुआ । लोक में यह विश्वास था कि नाग भूमि में गड़े धन का रक्षा करते हैं । धन के देवता यक्ष कुबेर थे, इसलिए यक्षों और नागों में सामंजस्य की स्थिति रही होगी । तात्पर्य यह है कि बहुत से लोकविश्वास समन्वय और एकता की भावना से संपुष्ट रहे हैं।

पुनर्जन्म का लोकविश्वास बहुत पुराना है । उसका उद्भव उत्तरप्रस्तर-युग में हो चुका था । बुंदेलखंड की जनजातियों में मृतक संस्कार के अंतर्गत शव के साथ सुख देनेवाली सामग्री का गाड़ना या शव-दाह के बाद हड्डियों को चुनकर किसी पात्र में सँजोना, इस विश्वास का प्रतीक है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति नयी यात्रा करता है । आर्यों के आने के साथ इस लोकविश्वास का और विकास हुआ । पितृलेक के बाद यमलोक और फिर स्वर्ग-नरक की मान्यताएँ उसके साथ जुड़ गईं । तदुपरांत पुनर्जन्म का विश्वास भी दृढ़ हो गया, जिसके कारण भोज्यपदार्थ तक पुरखों को अर्पित किये जोने लगे । लोगों को विश्वास था कि अपंण की सामग्री पुरखों तक पहुँच जाती है ।

मूर्ति-पूजा, बलि, प्रेत-पूजा से संबंधित विश्वासों का उत्स जनजातियों में मिलता है । तंत्र-मंत्र यक्ष, गंधर्व आदि किरात जातियों से आये । इन सबको अपनाकर आश्रमी संस्कृति के आर्यों ने वैदिक लोकविश्वासों का प्रसार किया । इस प्रकार लोकविश्वासों की विभिन्न धाराएँ एक हो गयीं और एक नये प्रवाह का जन्म हुआ । वैदिक संस्कृति से आयी 'कर्म' की नयी लहर ने उसे नया मेड़ दिया था, जिसका उत्कर्ष महाभारत-काल में दिखाई पड़ता है । महाभारत में लिखा है कि दुष्कर्मों से द्विज का अपने पद से स्खलन हो जाता है । अपने कर्म से च्युत होने वाला ब्राह्मण शुद्र हो जाता है, किंतु सत्कर्म करने से शुद्र ब्राह्मण बन जाता है । कर्म पर ऐसी आस्था सामाजिक चेतना की प्रमुख शक्ति थी ।

महाभारत के युद्ध में बुंदेलखंड के जनपत-चेदि और दशार्ण सम्मिलित हुए थे । 'युद्ध में जूझ जाने पर सूर्यलोक या स्वर्ग मिलता है' जैसा लोकविश्वास आर्यों की देन था, जिसे यहाँ लोकमान्यता मिली और जिसने वीरता की अमिट परंपरा खड़ी कर दी । लोकविश्वासों की मजबूत नींव पर ही लोकमूल्यों के महल खड़े होते हैं । बुंदेलखंड के संघर्षों के पिछे लोकविश्वासों की ही प्रेरणा थी ।

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सूत्रों और स्मृतियों के बंधन तथा धार्मिक जागृति

लोकविश्वासों की उठापटक और समन्वय की स्थिति के बाद सूत्रों और स्मृतियों ने उन सबको समेटकर एक नये विधान में संयोजित करने का प्रयत्न किया । हर जाति के अलग-अलग विधान थे और उनसे संबद्ध लोकविश्वास भी उसके अंतर्गत सम्मिलित थे । जैसे ब्राह्मण से संबंधित विश्वासों में कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं । ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है; ब्राह्मण को भोजन, दान आदि से प्रसन्न कर आशीर्वाद लेने से पुण्य होता है; ब्राह्मण देवता की पूजा करने और करवाने का अधिकारी है आदि । इसी तरह संस्कारों के साथ भी लोकविश्वासों का मेल किया गया । उदाहरण के लिए, विवाह-संस्कार में वधू का दाहिने पाँव के सिरे से पत्थर को चलाना पत्थर की तरह दृढ़ बनने का प्रतीक है । शत्रु को भगाना, मारना और उस पर विजय पाना; यात्रा में सुरक्षित पहुँचना; छिपा खजाना पाना; रोग का उपचार आदि में जादू का प्रयोग होता था । अपशकुनों के बुरे प्रभावों से बचने के लिए अनुष्ठान किये जाते थे । अनेक प्रकार के लोकविश्वासों का प्रभाव भी उस समय ज्ञात था । वंशी बजाने से गर्भ सुरक्षित रहता है । गर्भवती के सिर के पास जलपात्र रखने से सुरक्षित और शीघ्र प्रसव होता है । देहरी पर खड़े होना अशुभ है । दक्षिण दिशा मृत्यु की दिशा है और अशुभ है । इस तरह के लोकविश्वास लोकनीति से जाँचकर लोकहित के लिए प्रचलित हुए थे ।

कुछ लोकविश्वासों के केन्द्र पशु, पक्षी, वृक्ष आदि होते थे । सियार, भेड़िया और कुत्ते अपवित्र माने जाते थे, अतएव उनका बोलना अशुभ था । उल्लू भी अशुभ समझा जाता था । पीपल, नीम, वट, बेल, ऊमर, पलाश और शमी वृक्षों को पवित्र माना गया था । शायद इसलिए कि वे मानव के लिए किसी-न-किसी रुप में उपयोगी थे । पीपल में बरमदेव का वास रहता है । नीम के पत्ते मृत व्यक्ति के दाह के बाद उसके द्वार पर चबाये जाते थे । कुश और घास या दूबा को भी पवित्र ठहराया गया था । तात्पर्य यह है कि प्रचलित लोकविश्वासों और शकुनापशकुनों को सूत्रों और स्मृतियों में सार्थकता के साथ पिरोकर उन्हें व्यवस्थित करने का काम किया गया था । साथ ही मानव के दैनिक जीवन से उन्हें जोड़कर एक नियंत्रक बंधन का रुप भी दिया गया था ।

महात्मा महावीर और बुद्ध के पहले धर्म में अनेक अंधविश्वासों, कर्मकांडों और आडम्बरों का समावेश हो गया, जिसकी वजह से मानव जाति में एक जड़ ठहराव आ चुका था । इसीलिए इस संकटकाल में नयी धार्मिक जागृति नयी रोशनी लेकर आई । लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ, किंतु उसका असर जनता पर नहीं हुआ, इसीलिए जैन और बौद्ध ग्रंथों में पुराने लोकविश्वासों को अंधविश्वास मानकर स्थान दिया गया है । जातक कथाओं में ज्योतिष पर विश्वास, शकुन देखना, मंत्र और जादू-टोना, भूतों के लिए बलि, वृक्षों पर देवताओं का निवास, पुत्रप्राप्ति की कामना से यक्ष-पूजा, रोगों का मंत्रों और पूजा से उपचार आदि लोकविश्वासों का यत्र-तत्र वर्णन है । नागों और बुद्ध का संबंध इतिहास-ग्रंथों से पुष्ट है । ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्ध ने नागों को अपने प्रभाव में कर लिया था । जातकों में तो नागों की कई कथाएँ दी गयी हैं, जिनसे नाग-संबंधी लोकविश्वास स्पष्ट हो जाते हैं । नाग के पास अमूल्य मणि होना, नाग का अपनी केंचुली छोड़कर आदमी बन जाना आदि विश्वास इस युग में प्रचलित थे । रुढ़ और अंधविश्वासों के समानान्तर कुछ नये विश्वासों का विकास हो रहा था, जिनमें प्रमुख थे अहिंसापरक । जैन-धर्म के अनुसार मानव, पशु, वृक्ष, वायु, अग्नि, प्रस्तर-सभी में आत्मा होती है और सभी में मानव की तरह दु:ख अनुभव करने की शक्ति, अतएव सभी को एक समान समझना चाहिए । जन्म-मरण के चक्र में सभी फँसे हैं । उन्हें तभी मुक्ति मिल सकती है, जब वे दुष्कर्मों से छुटकारा पा लेते हैं । बौद्ध-धर्म मानव की इच्छा और क्षणभंगुरता को दु:ख का कारण मानता है । स्वार्थ के त्याग, अहंकार के अंत और शांति के द्वारा इस दु:ख से मुक्ति संभव है । तात्पर्य यह है कि मूर्तिपूजा, यज्ञ, मंत्र, बलि आदि के अंधविश्वासों के खिलाफ बुद्ध ने लोक को जगाया और अहिंसा एवं सत्य तथा कर्म से संबद्ध लोकविश्वासों की प्रतिष्ठा की ।

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नाग -वाकाटक युग

महात्मा महावीर और बुद्ध के उपदेश बुंदेलखंड की धरती पर बाद में ही फैले और उनके अंकुर और भी बाद में फूटे । अतएव इस अंचल में उनका प्रभाव यत्र-तत्र ही मिलता है । उनकी अधोगति के बाद भागवतों और शैवों ने इस अंचल, के लोकविश्वासों में एक नयी क्रांति खड़ी कर दी । लोकविश्वासों के संदर्भ में क्रांति का अर्थ है-कुछ ऐसे विश्वासों का बदलाव, जो जीवन-दर्शन के बदलने में प्रधान हों । जैन और बौद्ध-धर्म में गृहत्याग और निर्वाण परममूल्य थे, लेकिन नाग-वाकाटक युग में धर्म के साथ घर, समाज और राष्ट्र जुड़ा था । प्रसिद्ध इतिहासकार श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है-"उस समय राष्ट्र की जैसी प्रवृत्तियाँ और जैसे भाव थे, उन्हीं के अनुरुप ईश्वर का एक विशिष्ट रुप उन लोगों ने चुन लिया था और उसी रुप को उन्होंने अपनी सारी सेवा समर्पित कर दी थी" (अंधकारयुगीन भारत, पृ. १०४) । इतना ही नहीं, इस युग में गार्हस्थिक आस्था को प्रमुख महत्त्व मिला ता । लोक भक्ति पर विश्वास रखता हुआ शिव, विष्णु, सूर्य, यक्ष देवताओं और गंगा, नंदी, गाय आदि परिकरों की पूजा करने लगा था । नाग और वाकाटक शैव थे, पर वे अन्य धर्मों के प्रति उदार थे । इस कारण लोक में योग, भक्ति, कर्म और भुक्ति-सभी की मान्यता थी । लोगों में यह विश्वास दृढ़ था कि शरीर के द्वारा ही योग, भोग, कर्म और भक्ति की जा सकती है । जगत् सुखों और दु:खों का भंडार है । मृत्यु सबसे बड़ा दु:ख है, जिससे छुटकारा तभी मिलता है, जब मानव इसी जगत् में रहकर सत्कर्म करे ।

इस परिवर्तन के बावजूद पुराने लोकविश्वास प्रचलित थे । बाद के बौद्ध संप्रदायों में फैले भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, रक्षा-ताबीज आदि संबंधी लोकविश्वास लोक में व्याप्त थे । भूत-प्रेत उपद्रव करते हैं और उनकी शांति बलि और मंत्रों से होती है । अनेक बाधाओं से बचने के लिए ताबीज कवच का काम करते हैं । देव तथा नक्षत्र-पूजा से गृहदशा संभल जाती है । मंत्र के जोर से भुजंग को रेखा के भीतर बाँधा जो सकता है । सूम जो धन गाड़ता है, उसकी रक्षा मरने के बाद सपं होकर करता है । नागों को प्रसन्न करने पर मनवांछित कार्यसिद्ध हो जाते हैं । यक्ष की पूजा से पुत्र प्राप्त होता है और रोग-शोक दूर हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि लोकविश्वास किसी खास धर्म या संप्रदाय के नहीं होते । उनका विकास युग की चेतना से प्रेरणा पाकर क्रमिक रुप में होता है । एक उदाहरण काफी है । जनजातियाँ वृक्षों में आत्मा मानती थीं । वैदिक संस्कृति में वृक्ष को महत्त्व मिला है और पीपल में देवों का निवास कहा गया है । महाभारत में पत्तों और फलों से लदा वृक्ष पूजा योग्य बताया गया है । गीता में भी पीपल की महिमा का संकेत है । बौद्ध-धर्म में बोधि-वृक्ष की उपासना मान्य है । रुक्ख जातक में वृक्ष को देवता माना गया है ।-२ बाद में पीपल पर वासुदेव और नीम पर देवी का निवास लोकप्रचलित रहा । पीपल पर बरम्ह या बरमदेव का वास आज भी लोकस्वीकृत है । कुछ लोग उसे ब्राह्मण समझते हैं, जबकि वह बीर बरम्ह या ब्रह्म है जिसका आशय यक्ष से है । विज्ञान की आधुनिक खोजों ने वृक्षों में जीवन के साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं, जिससे लोक के बहुत पुराने विश्वास की पुष्टि हुई है । सिद्ध है कि एक लोकविश्वास न जाने कितने संप्रदायों, विचारधाराओं और दर्शनों से टकराकर आज तक प्रवहमान रहा है ।

सतीत्व-संबंधी लोकविश्वास का प्रामाणिक साक्ष्य एरण का ५०१ ई. का अभिलेख है, जिसके अनुसार हूणों से लड़ते हुए सेनापति गोपराज की मृत्यु पर उसकी पतिव्रता पत्नी ने पति के शव के साथ चिता पर आरोहण किया था । सतीप्रथा और नारी का सतीत्व पर विश्वास का यह उदाहरण इतिहास में सबसे पुराना है । उसके बाद के प्रमाण हैं सतीस्तंभ, जो सारे बुंदेलखंड में बिखरे पड़े हैं । उनसे यह सिद्ध होता है कि इस लोकविश्वास का प्रचलन उस समय अधिक रहा है, जब आक्रमणकारियों ने किसी भी भू-भाग या स्वत्व को हस्तगत करने के लिए युद्ध किये हों ।

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पौराणिक युग

पुराणों में लोकविश्वासों की भरमार है । उनकी कथाओं में निहित लोकविश्वास जहाँ पात्रों को जीवंत बनाते हैं, वहाँ कथा को नयी गति देते हैं । कथाओं ने लोकविश्वासों के प्रसार में प्रधान भूमिका निबाही है और लोकविश्वासों ने कथाओं को लोकोन्मुखी बनाने का महत्कार्य किया है । वास्तव में, पौराणिक कथाएँ लोकविश्वासों की धरती से उगी हैं और उन्होंने लोकविश्वासों के ऐसे पुष्प बिखेरे हैं, जो लोकसंस्कृति की पुष्पमालिका के संग्रथन में आज तक भागीदार रहे हैं । इतना ही नहीं, इन कथाओं ने अवैदिक-वैदिक, वन्य-नागरी और देशी-विदेशी-सभी प्रकार के लोकविश्वासों को समन्वित कर लोकजीवन के व्यावहारिक क्षेत्र को व्यापक बना दिया है । विश्वास का सैद्धांतिक रुप उतना असरदार नहीं होता, जितना कि व्यावहारिक रुप । पुराणों में इसी व्यावहारिक रुप के दर्शन होते हैं । लोकविश्वासों के समन्वय और उनकी व्यावहारिकता ने लोक और लोकसंस्कृति को अधिक शक्तिसंपन्न और प्रभावशाली बनाने में मदद की है । दूसरे, पुराण कथानिबद्ध इतिहास हैं, अतएव उनमें आये लोकविश्वास कपोलकल्पित नहीं हैं । पुराणों के काल-निर्धारण एवं क्षेत्र की पहचान होने पर लोकविश्वासों का विकास समझा जा सकता है ।

यहाँ एक उदाहरण विष्णु पुराण से उद्धृत है । नर्मदा संबंधी एक उपाख्यान है, जिसमें गंधर्वों� और नागों के संघर्ष का वर्णन है । पहले गंधर्वों� ने मुनि कश्यप के छ: लाख पुत्रों को लेकर नागों को पराजित किया था और उनके मूल्यवान् रत्न छीनकर उनके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया था । बाद में नागों ने नर्मदा से पुरुकुत्स की सहायता लेने के लिए कहा, इस कारण नर्मदा पुरुकुत्स को लेकर पाताल गयी और पुरुकुत्स ने गंधर्वों� का संहार किया । इस पर नागों ने नर्मदा को आशीर्वाद दिया कि 'जो कोई नर्मदा का स्मरण करेगा, उसे सर्पों से भय नहीं रहेगा ।' यह उपाख्यान चाहे ऐतिहासिक हो और नर्मदा के माध्यम से गंधर्व और नाग जातियों के संबंधों पर प्रकाश डालता हो, चाहे कल्पित हो और नर्मदा की महिमा स्थापित करने के लिए लिखा गया हो, लेकिन इतना निश्चित है कि इस कथा से एक लोकविश्वास का जन्म हो गया । लोगों का विश्वास है कि प्रात: और रात्रि में नर्मदा मैया को नमस्कार करने और यह प्रार्थना करने से कि 'हे नर्मदा ! मुझे सर्पों के विष से बचाओ', सर्पों का विष व्याप्त नहीं होता । होता यह है कि कथा विस्मृत हो जाती है, विश्वास अमर रहता है ।-३

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चंदेल -युग

चंदेल-काल बुंदेलखंड का स्वर्णयुग रहा है । इसी समय उसकी राजनीतिक इकाई का जन्म हुआ और इसी समय उसकी सांस्कृतिक इकाई की पहचान बनी । युग की परिस्थितियों के अनुसार उसके लोकमूल्य और लोकविश्वास आ खड़े हुए । बाहरी आक्रमणों का सामना करने के लिए चंदेलों ने केवल सैनिक और शस्र ही नहीं तैयार किए, वरन् भीतरी ऊर्जा को कायम रखने के लिए लोक के संकल्पों और विश्वासों के दुर्ग खड़े कर दिए । इन दुर्गों की नींव ऐसे लोकविश्वासों के कंधों पर थी, जो व्यक्ति और लोक को वज्र की तरह सूदृढ़ बना देते हैं । आल्हखंड की हर गाथा में उनका स्पष्ट सेकेत है-

१. मानुस देइया जा दुरलभ है आहै समै न बारंबार ।

२. मरद बनाये मर जैबै कों खटिया परकें मरै बलाय ।

जे मर जैहें रनखेतन मा साखौ चलो अँगारुँ जाय ।।

मानव शरीर एक दुर्लभ वस्तु है । मानव योनि बार-बार नहीं मिलती । अतएव लोकविश्वास है कि जीवन में जो करना है, इसी कीमती समय में कर लेना चाहिए । मर्द वह है, जो मृत्यु का वरण करे । जो युद्धक्षेत्र में प्राण देते हैं, उनका यश अमर रहता है । पुरुष के जूझने के समानांतर नारी के सतीत्व पर लोगों को गहन आस्था थी । आल्हा में सिरसा के महावीर मलखान की मृत्यु पर रानी गजमोतिन के सती होने का वर्णन है । इतिहासकार अलबेरुनी ने लिशा है कि 'विधवाएँ या तो अपने पतिदेव की चिता पर अपने को झोंक देती हैं या तपस्विनी का जीवन व्यतीत करती हैं ।' वत्सराज के 'रुपकषटकम्' में सती का स्पष्ट प्रमाण मिलता है ।-४ इन दोनों के विपरीत आत्महत्या करने को पाप माना जाता था । देश-जाति के प्रति लोगों का विश्वास था कि 'यदि कोई देश है तो उनका, जाति है तो उनकी, यदि शासक हैं तो उनके ।'-५ लोक का यह आत्मविश्वास उस समय बहुत जरुरी था ।

महोबा में तांडव नृत्य करते शंकर, चारों दिशाओं में प्रतिष्ठित चंडिका देवी का मूर्तियाँ और गोखागिरि के कालभैरव इस तध्य के साक्षी हैं कि लोक ने समय को देखते हुए संहारकारी देवी-देवता को चुना था । इनके अलावा किसी देव या देवी पर विश्वास की रुढि वर्तमान थी । समाज में दान का महत्त्व सबसे अधिक था । लोगों का विश्वास था कि दान करने से दाता और उसके पूर्वज पुण्य के भागी होते हैं । चंदेलकालीन शिलालेखों में दान के अनेक उल्लेख हैं । तीर्थयात्रा करना, व्रत रखना, तालाब खुदवाना और मंदिर बनवाना धार्मिक लोकविश्वासों के प्रमुख अंग थे । बुंदेलखंड में तालाबों की भरमार है ही, चंदेलकालीन मंदिर भी अगणित हैं । गाय और गंगा पापों का नाश करने वाली मानी जाती थीं ।

कर्म और भाग्य-संबंधी विश्वास प्रबल थे । 'प्रबोधचंद्रोदय' में स्पष्ट है कि 'वीधाता ही वाम है, तो क्या नहीं घट सकता' ।-६ भाग्य पर अधिक निर्भर होने के बावजूद कर्म उपेक्षित न था । लोक का विश्वास था कि भले कर्म दूसरे जन्म में सहायक होते हैं ।-७ पुनर्जन्म होता है और उससे छुटकारा तभी मिलता है, जब व्यक्ति के पुण्य अधिक हों । पुण्य का अर्थ शभकर्म ही है, अतएव यह सही नहीं है कि कर्म पर लोगों का विश्वास नहीं था या कम हो गया था ।

प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास आदिकाल से प्रचलित रहे हैं, किंतु इस काल में शिव-पार्वती की लोकप्रियता के कारण बेलपत्र को अधिक महत्त्व मिला था । नारियों का विश्वास था कि पार्वती की पूजा से अभीष्ट वह की प्राप्ति होती है ।-८ इसी से संबद्ध बेलपत्र भी लोकमान्य हो गया । कृषि-संबंधी विश्वास कुछ परम्परित थे और कुछ नये । खेती करने के पहले हल-बैल की पूजा, अमावस्या को हल-बैल न चलाना, खेती के ओले, पाला आदि से बचाने के लिए पूजा करना आदि लोकविश्वास प्रचलित थे । नाग-संबंधी विश्वास इस समय तक बहुत लोकप्रिय हो चुके थे । दसवीं-ग्यारहवीं शती में निर्मित मंदिरों से जूड़ी नागसंबंधी किंवदंतियों में इन विश्वासों की भूमिका स्पष्ट हे । आक्र्येल्याजिकल सर्वे रिपोट्र्स में उद्धृत इन किंवदंतियों से यह लोकविश्वास भी विशिष्ट बन जाता है कि मंदिर के निर्माण से व्यक्ति रोग-शोक से मुक्त हो जाता है ।

कभी-कभी कोई लोकविश्वास स्थानीय इतीहास से जुड़ जाता है । महोबा में यह लोकप्रचलित है कि वहाँ कोई नगाड़ा (यद्ध का) नहीं बजाता । अगर बजाता है, तो मृत्यु को प्राप्त होता है । इसी तरह चंदेलों के किलों के संबंध में यह लोकविश्वास है कि उनमें धन गड़ा हुआ है । अजयगढ़ दुर्ग के द्वार पर एक बीजक खुदा हुआ है । हर स्थान या नगर में कोई-न-कोई वृक्ष, सरोवर, भवन, वापी, मढिया आदि होता है, जिसमें भूत-प्रेत का निवास बताया जाता है । जादू-टोने, भूत-प्रेत और तंत्र-मंत्र-संबंधी विश्वास इस समय हर वर्ग में थे ।-९ मंत्रों के बल से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।-१० आँखों में अंजन विशेष लगाने और आपत्तियों से बचने के लिए तंत्र-मंत्र और ज्योतिष का उल्लेख हुआ है । दिबारी, देवीगीत, राछरों जैसे आदिकालीन लोकगीतों और 'आल्हा' लोकगाथाओं में लोकविश्वासों को काफी महत्त्व मिला है । दुष्कर्म करने से मनुष्य अपने आप मर जाता है । इस संसार में कोई बचता नहीं हे, सभी नश्वर हैं । 'बाहें और नैन फड़कने से शुभ होता है ।', 'धान बोने से बहन धनी होती है और दूध सींचने से ननद पुत्रवती होती है ।', 'तथा शकुनापशकुन अपना फल अवश्य देते हैं ।'-१३

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तोमर -काल

तोमरनरेशों के समय इस अंचल पर आक्रमणों की दृष्टि लगी हुई थी, अतएव ऐसे लोकविश्वासों का सतत् जागरण जरुरी था, जो लोक और लोकसंस्कृति को शक्तिसंपन्न बनाते । तत्कालीन काव्य-ग्रंथों और ऐतिहासिक प्रमाणों तथा लोकगीतों से पता चलता है कि उस समय लोक में शौर्य, कर्म, सतीत्व और प्रेम-संबंधी लोकविश्वास प्रमुख थे । विदेशी संस्कृति की तलवार से बचने के लिए दो मार्ग ही थे-एक युद्ध और दूसरा प्रेम । कविवर विष्णुदास के महाभारत से स्पष्ट है कि लोगों का विश्वास क्षात्र धर्म का पालन था । अगर क्षत्री शत्रुओं को देखकर भागता है, तो सात पीढ़ीयों केर पूर्वज लज्जित होते हैं । पृध्वी पर उसे न तो नाम मिलता है और न गति ।-१४ मोक्ष पाने के लिए क्षत्रिय (सैनिक या वीर) रणक्षेत्र में जूझता है, राजा दान देने में कृपणता नहीं दिखाता और विप्र अपने मन में जीवों पर दया रखता है ।-१५ कवि ने सीता से कहलाया है-

ध्रिगु रे ध्रिगु मानुस कौ जन्म । ध्रिगु जु बंस जिहि होत अकम्र्म ।।

ध्रिगु जीवन जो परबस रहै । दुक्ख बियापै सीता कहै ।।

उस जीवन को धिक्कार है, जो परतंत्र होता है । सिद्ध है कि कवि लोकविश्वास को कथा के माध्यम से व्यक्त करता है और तत्कालीन लोकचेतना का प्रतिबिम्बन करता है । सारी परिस्थिति के ध्यान में रखकर ही उसने कथाकाव्य चुना है और कथा का फल बताते हुए कथा सुनने की अनिवार्यता प्रमाणित की है । कथा सुनने से पाप नष्ट होता है, मन और बुद्धि स्थिर होते हैं, युद्ध में पराजय नहीं होती और तीर्थ-स्नान का फल मिलता है ।

'सत्त' और 'पत' उस समय के लोकजीवन के केन्द्रीय मंत्र थे । 'सत्त' और 'पत' से संबंधित अनेक लोकविश्वास हैं । देवता और देवी में सत्त होता है । पुरुष सत्त पर टिका रहता है । नारी में सत्त होता है, तभी वह सती होती है । नारी अपनी पत की रक्षा सबकुछ देकर करती है । कुल की पत, राज की पत, देस की पत की रक्षा करना सबका धर्म है ।

लोगों को विश्वास ता कि कर्म भगवान् भी नहीं मिटा सकता । जो होना है, वह होकर रहेगा । विधना ने सुख और दु:ख मस्तक पर लिख दिये हैं ।-१६ इस रुप में कर्मफल और भाग्य पर विश्वास की परम्परा अमर रही है असल में, कर्म और भाग्य लोकसंस्कृति के खाते में पूरक रहे हैं । कीर्ति भी हर युग में प्यारी रही है । इस युग में भी कीर्ति के बिना जीवन कीर व्यर्थता सिद्ध की गयी है । लोगों का विश्वास था कि युद्ध और दान के बिना कीर्ति नहीं मिलती ।-१७ ज्योतिष और शकुनापशकुन पर विश्वास भी प्रबल था । स्वर्ग और नरक के माप भी निश्चित थे । पुत्र के बिना नरक से उद्धार नहीं होता और पूर्वज मोक्ष नहीं पाते ।-१८ धरती के संबंध में लोकमान्यता थी कि नाग (शेषनाग) के सिर (फन) पर धरती टिकी हुई है ।-१९ मंत्र और टोना-टोटका पर लोक का विश्वास अभी तक बना था ।-२०

वर्जनाएँ भी लोकविश्वास की संपुष्टि करती हैं । विष्णुदासकृत महाभारत में पूरे घत्ते की चौपही वर्जनाओं से भरी हैं । उनमें कुछ ऐसी हैं जो नीतिपरक हैं, परंतु कुछ रुढियों के प्रति विद्रोही भूमिका अदा करती हुई स्वच्छंद हैं जैसे-

बिनसै धर्म कियें पाखंड

बिनसै बैदु सुरा-रस भीनें ।

बिनसै कला कुठाकुर सेवा ।

इन तीनों अर्द्धालियों में जिन लोकविश्वासों का उल्लेख किया गया है, वे क्रांतिकारी हैं । पाखंड करने से धर्म नष्ट होता है और शराब में भीगने से वेद या वेदों का ज्ञान नष्ट होता है । ये दोनों धर्म के क्षेत्र में क्रांतिस्त्रष्टा विश्वास हैं जबकि 'कुस्वामी या बुरे आश्रयदाता की सेवा करने से कला नष्ट होती है' जैसा लोकविश्वास कला की दिशा में सार्थक पहल करता हुआ नया द्वार खोलता है ।

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बुंदेल -काल

मध्यकाल में या तो बुंदेलों कार शासन रहा है या गोंड़ों का । इस कारण गोंड़ों में प्रचलित लोकविश्वासों का प्रभाव इस अंचल पर अधिक रहा है । गोंड़ चंदेलों के समय और उनके पूर्व भी रहे हैं । गोड़ों की गढियाँ पूरे अंचल में फैली हुई हैं, उनके अवशेष आज तक वर्तमान हैं । फिर गढ़-मंडला के गोंड़ सत्ता में रहे हैं । इसलिए उनके विश्वास इस अंचल के विश्वासों के साथ हिल-मिलकर आगे बढ़े हैं । गोंड़ों में रजस्वला स्री पाँच दिन तक घर के बाहर ही रखी जाती है । उसकी छाया पड़ना ही खराब माना जाता है । छुआछूत की यह मान्यता हमारे परिवारों में कुछ परिवर्तन के साथ आज तक जीवित है । भूत-प्रेतों पर गोंड़ों का विश्वास दृढ़ है, क्योंकि उनके कुपित होने पर मनुष्यों पर आपत्तियाँ आती हैं-आज भी लोक में यह विश्वास प्रचलित है । मूर्तिपूजा की कल्पना इस अंचल में गोंड़ों से आई थी, जो आज हिंदुओं के धार्मिक लोकविश्वासों की धुरी है ।

भक्ति-आंदोलन की लहर इस अंचल के लोकविश्वासों में एक नया परिवर्तन अंकित करती है । भक्तिपरक लोकविश्वास तो बहुत पहले से मौजूद थे, लेकिन सीताराम और राधेश्याम की लीलाओं ने उनकी भावना को अधिक व्यापक और गहरा बना दिया था । लोकगीतों में राम-कृष्ण और सीता-राधा का नायकत्व लोकमय होकर लोक से इतना जूड़ चुका था कि हर पुरुष राम-कृष्ण और हर स्री सीता-राधा हो गयी थी । इस तरह लोकसंस्कृति की रक्षा के लिए एक नया आत्मविश्वास और नयी ऊर्जा का द्वार खुल गया । अंतर केवल इतना था कि लोकभक्ति संप्रदायमुक्त और निरपेक्ष थी । वह संपूर्ण लोक की थी, इसलिए लोक की शक्ति बनी । दूसरे, उससे हिंदू-मुस्लिम और नीची जातियों की भेद-भावविहीन एकता का सूत्रपात हुआ । तोमरकालीन ग्रंथ 'छिताई चरित' में कथाकार ने इस एकता के भाव का स्पष्ट संकेत किया था, और उसी परंपरा में लोकभक्ति से संबंद्ध लोकविश्वास ढल गये । जात-पाँत पूँछे न कोई, हरि को भजै सो हरि को होई (जाति-पाँति कोई नहीं पूछता, जो भगवान् को भजता है, वह उसी का हो जाता है), राम भरोसें खेती (सब राम का भरोसा है), राम भरोसे जे रहें परबत पै हरयायँ (जो राम के भरोसे रहते हैं, वे पर्वत पर भी हरे रहते हैं यानी कि विषम परिस्थिति में भी सुखी रहते हैं), राम राखे कोऊ न चाखे (राम रखवाला है, तो कोई क्या बिगाड़ सकता है) आदि विश्वास कहावतों के रुप में इसलिए प्रचलित हुए कि वे लोक द्वारा लोकजीवन के प्रमुख सूत्र बन चुके थे ।

तोमरों के पतन के बाद इस अंचल की ऐतिहासिक घटना थी आजादी की लड़ाई, जो चंपतराय और छत्रसाल द्वारा लड़ी गयी । असल में, मुगलों के आक्रमण निरंतर होते रहने के कारण बुंदेलखंड की कुछ रियासतें आत्म-समपंण कर चुकी थीं और कुछ अधीन हो चुकी थीं । ऐसी परिस्थिति में संघर्ष जरुरी था । अतएव शौर्यपरक लोकविश्वास भी 'परबत पर हरयाते' रहे इनके परिकर में क्षात्र-धर्म के पालन करने युद्ध में जूझने से स्वर्ग मिलता है, काल-गति जानी नहीं जाती, उद्यम का फल अवश्य मिलता है, भगवान जैसा करना चाहता है, वैसी ही बुद्धि कर देता है, रण के प्रयाण में ज्योतिष और शकुनों पर विश्वास, विपरीत स्थिति में अपशकुन, हर स्थिति में भाग्य या कर्म का फल आदि लोकविश्वास आते हैं, जो तत्कालीन ऐतिहासिक काव्यों में उल्लिखित हैं । आश्चर्य है कि मध्ययुग के सभी प्रमुख कवियों ने कुल, राज और हिंदुवाने की 'पत' (लाज या प्रतिष्ठा) रखने के लिए रण में जूझने और क्षात्रधर्म के पालन करने को प्रधानता दी है ।

महोबा कौ रायसौ (१५२६ ई. के लगभग) में स्पष्ट है कि 'छत्रिय कौ यह धरम है, रन तिरथ तजि प्रान' । साथ ही सामुद्रिक (ज्योतिष) संबंधी लोकविश्वास यानी कि शुभ घड़ी में काम करना, शकुन और अपशकुन की मान्यता भी प्रमुख है ।-२१ तुलसी तो लोकविश्वासों के कोष थे । उन्होंने लोकविश्वासों की नींव पर अपनी मान्यताएँ खड़ी की हैं । दोहावली के दोहे लोकविश्वासों की शिलाओं पर कविता के ईंटगारे से बने स्तंभ हैं । संसार में काल किसको नहीं खाता अर्थात् संसार की हर वस्तु नश्वर है, इस लोकविश्वास को तुलसी ने लोकशैली से काव्यात्मक बना दिया है-

काह न पावक जारि सक, का न समुद्र समाइ ।

का न करे अबला प्रबल, केहि जग काल न खाइ ।।

यह दोहा लोककाव्य में भी आ गया है, पर इसके सभी प्रश्नों के उत्तरों के लिए एक दूसरा दोहा रच दिया गया है । तुलसी के दोहे लोकविश्वासों की तरह कहे जाते हैं-'भलो भलाई पै लहै, लहै निचाई नीच', 'जड़-चेतन गुन-दोष मय वि कीन्ह करतार', 'तुलसी जसि भवितव्यता, तैसी मिलै सहाय । आपु न आवै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाय ।।' और 'मुखिया मुख सो चाहिए, खान-पान को एक । पालै-पोषै सकल अँग तुलसी सहित विवेक ।।'

तुलसी भक्त कवि थे, इसलिए उन्होंने लोकविश्वास से लाभ लेकर भक्ति करने को कहा था । लोकविश्वास है कि मानव का शरीर मिलना दुर्लभ है, अतएव तुलसी ने उसे कारण बनाकर अपने कार्य की पुष्टि कर दी है-"दुर्लभ देह पाइ हरीपद भज करम वचन अरु ही ते ।" रामचरितमानस में जहाँ सामान्य लोकविश्वासों का वर्णन है, जैसे 'होईहै वही, जो राम रचि राखा', 'जे न मित्र-दु:ख होहिं दुखारी, तिनहिं बिलोकत पातक भारी ।।' आदि, वहाँ कुछ विशिष्ट लोकविश्वासों का भी, जैसे 'भानु पी', सेइय उर आगी' (धूप को पिछे से और आग को आगे से सेवन करना लाभप्रद है) और 'श्रीखंड समपावक प्रबेस कियो, सुमिरि प्रभु, मैथिली ।' (अग्नि-परीक्षा) । अग्नि-परीक्षा तो एक अभीप्राय है, एक कथानक-रुढि है, लेकिन तुलसी ने उसे अग्नि में प्रवेश करते हुए बताया है । ऐसा लोकविश्वास था कि अग्नि-परीक्षा में अग्नि जलाकर उसमें प्रवेश कर अक्षत निकल आना ही सफलता है और तुलसी ने बिल्कुल वैसा ही प्रसंग लंकाकांड में बुन दिया है । शकुनापशकुन, भूत-प्रेत, जादू-मंत्र, टोना-टोटके जैसे विश्वास भी तुलसी के परिचित थे । दोहावली में तो कवि ज्योतिषी हो जाता है । कौन-से नक्षत्र शुभ हैं, कौन-सी तिथियाँ अशुभ हैं, कौन-सा चंद्र घातक है और सिन वस्तुओं का दर्शन शुभ है ।-२२ रामचरितमानस में उस जादू के अंजन का उल्लेख है, जिसे आँखों में लगाने से धरती के नीचे गड़ा धन देख लेते हैं ।-२३

केशाव जैसे रीतिकवि ने उस समय की परिस्थितियाँ तौलकर यह लिखा था कि रण में जूझने वाले संसार-समुद्र से पार होकर सूरज-मंडल भेदकर स्वर्ग पहुँचते हैं । उनके पग-पग पर यज्ञों का फल होता है और उनकी कथा सुनकर लोक शुद्ध होता है ।-२४ केशव ने तुलसी की तरह लोक का प्रयोग अनेक बार किया है । 'जनपद' शब्द भी आया है, इससे प्रतीत होता है कि उन्होंनें लोक और लोकजीवन को करीब से देखा था । रतन-बावनी में 'पत' (पति पाठ सही नहीं है)-संबंधी विश्वास पर अच्छी चर्चा है । 'जहाँगीर जस-चंद्रिका' में भग्य और कर्म-संबंधी प्रचलित लोकविश्वास को वाणी दी है-'करम फलै उद्दिम करें उद्दिम करमहिं पाइ' (कर्म करने से भाग्य फलता है और भाग्य से कर्म) ।-२५

प्रेमाख्यानकों में लोकसंस्कृति की धरोहर को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति अधिक बलवती होती है । हरिसेवक मिश्र (१६९८-१७३५ ई.) की रचना 'कामरुप की कथा' एव बोधा के 'विरहवारीश' (१७५५ ई.) में लोकविश्वासों की परम्परा का विकास मिलता है । उनमें प्रेम-संबंधी लोकविश्वासों की प्रमुखता है । प्रेम का पथ करालहै, तलवार की धार पर दौड़ने की तरह । चकोर सुधाधर के प्रम में अंगार खा लेती है । कमल और सूर्य, मृग और राग, मछली और जल, स्वाँति और चातक, चुंबक और लोहा तथा हारिल और लकड़ी के प्रेम के विश्वास-२६ कब से प्रचलित हुए, खोज का विषय है । दूसरे परम्परित लोकविश्वास हैं-कर्म का फल भोगना पड़ता है; संसार में भावी प्रबल है, भाल में सब लिख दिया जाता है, वही होता है; पारस के स्पर्श से सोना होना; धरा शेषनाग के सीस पर स्थित है; भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, मूठ, शकुन-अपशकुन आदि ।-२७

'छत्रप्रकास' और 'जगतराज की दिग्विजय' की रचना १८वीं शती के प्रथम चरण में हुई थी और दोनों बुंदेलखंड के इतिहास-ग्रंथ हैं । दूसरे, छत्रसाल और जगतराज के पत्र हैं, जो प्रामाणिक साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । धामी संप्रदाय का पवित्र ग्रंथ कुलजमस्वरुप भी तत्कालीन विश्वासों में उद्वेलन पैदा करता है । इन प्रमाणों के आधार पर लोकविश्वासों का एक चित्र बनता है, जिससे उस समय की संस्कृति का पता चलता है । पौराणिक प्रतीकों के माध्यम से 'छत्रप्रकास' का कवि राष्ट्रीय और अराष्ट्रीय तत्त्वों की शत्रुता के विश्वास को स्पष्ट करता है । सुर और असुर के बैर -२८ और संघर्ष का लोकविश्वास परम्परित है और मध्ययुग के अनेक ग्रंथों में इसी के प्रतीक द्वारा राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति हुई है । इस संघर्षी वीरता के पीछे छत्रसाल की परमात्मा पर आस्था थी । उनका विश्वास था कि हर बात भगवान् की इच्छा से ही होती है । परमेश्वर ने जो बना दी, उसे कोई नहीं मिटा सकता । लोकिन 'उद्यम' (कर्म) का फल सबको मिलता है । इस लोकविश्वास का पुष्ट रुप छत्रप्रकास की इन पंक्तियों में मिलता है-

"जो जैसो उद्यम करै, सो तैसो फल लेइ ।"

"उद्यम करै संग सब लागै । उद्यम तें जग में जस जागै ।।

समुद उतर उद्यम में जइये । उद्यम तें परमेसुर पइये ।।"

कर्म से कीर्ति मिलती है । समुद्र भी कर्म से पार किया जा सकता है और यहाँ तक कि परमेश्वर की प्राप्ति कर्म से ही होती है । 'कुलजमस्वरुप' में भी यह लोकविश्वास प्रधान है । लेकिन उसमें हिंदुओं और मुसलमानों के अंधविश्वासों की आलोचना है । मूर्तिपूजा भी अंधविश्वास है । छत्रसाल और तत्कालीन लोक ने इसे मान्यता नहीं दी । 'पन्ना' में सुरक्षित पत्रों से ज्ञात होता है कि छत्रसाल का विश्वास जादू-टोना पर था । उन्हों स्वप्नों में देवी-देवता के दर्शन होते थे और उन्हें प्रसन्न करने के लिए वे बलि भी चढ़ाते थे ।-२९ 'छत्रप्रकाश' में 'निधि अंजन' के प्रयोग से स्पष्ट है कि उस समय लोगों का विश्वास था कि सिद्ध अंजन लगाने से भूमि में गड़ी संपत्ति दिखाई देने लगती है ।-३० इनके साथ-साथ परस्वार्थ और लोकहित को पुण्य और निजी स्वार्थ को पाप समझा जाता ता, जिससे उस समय के लोक की मानसिकता प्रकट होती है-'निज स्वारथ सो पाप नहिं, परस्वारथ सो पुन्न ।' और 'काऊ की लटी न चाहै और न लटी करै ।' (लटीउबुराई) ।

'जगातराज-दिग्विजय' में तीन विचित्र लोकविश्वासों का वर्णन है । पहला यह है, कि राजा जो करता है, वह न्याय है-'राजा करहि सुन्याय है पाँसौ परहि सुदाँव ।' बुंदेली कहावत है-'पंडित पढ़ै सो ब्याव, राजा कबै सो न्याय ।' पंड़ित मंत्रों के रुप में कुछ भी पढ़े, वह विवाह माना जाता है । इसी प्रकार राजा जो भी निर्णय करे वही न्याय है । दूसरा एक स्वप्न है जिसमें दलेल शरीर में तेल लगाये, लाल फूलों की माला पहने हुए अन्न खा रहा है और प्रेतों की बरात साथ है । लोगों का विश्वास है कि इस स्वप्न से प्राणहानि होती है । तीसरा यह है कि विप्र का क्रोध एक क्षण, क्षत्रिय का तीन दिन, वैश्य का एक माह और शूद्र का हमेशा रहता है -३१ -

विप्र क्रोध क्षण एक बखानौ । क्षत्रिय क्रोध तीन दिन जानौ ।।

वैश्य क्रोध इक मास प्रजंता । शूद्र क्रोध कौ आदि न अंता ।।

१९वीं शती में भी होनहार की प्रबलता, कर्मफल की अनिवार्यता, लोकयश की ममता, सतीत्व की महत्ता, शकुनापशकुन और टोना-टोटका की व्याप्ति जैसे लोकविश्वास परम्परा से चले आये हैं ।-३२ १८४२ ई. के पारीछत और अंग्रेजों के युद्ध के बाद कई कटककाव्य लिखे गए, जिनमें छोटे-छोटे युद्धों के वर्णन लोकछदों और लोकशैली में हैं । उनमें छात्रधर्म और कर्म तथा सत और पत-संबंधी लोकविश्वासों की महत्ता इसलिए मिली है कि वे आजादी की पहली लड़ाई की तैयारी में लोक को जाग्रत करें ।

१८५७ ई. के स्वतंत्रता-संग्राम में मिली असफलता के फलस्वरुप लोकविश्वासों में गिरावट-सी दिखाई पड़ती है । फागसम्राद् ईसुरी निराशा-भरे स्वर में कह उठता है-'बखरी रैयत हैं भारे की, दई पिया प्यारे की ।' उन्नीसवीं शती के अंतिम चरण में लोककाव्य का पुनरुत्थान हुआ था, इस कारण लोकविश्वासों का भी सहज सम्मान हुआ । ईसुरी की फागों में व्यक्त लोकविश्वास हैं-धर्म के बिना कर्म नहीं खुलता, योग से व्यक्ति विमान पर चढ़कर स्वर्ग जाते है, ब्रह्मा ने उन्हीं के लिए बैकुंठ की रचना की है, गंगा स्नान से मोक्ष मिलता है, इस तन का भरोसा नहीं है और एक दिन सभी को मरना है, यह संसार ओस की बूँद है, जो हवा के चलने से ढुलक जाती है, मानव बड़े भाग्य से होता है, जो विधाता ने लिख दिया है वही होता है, धर्मराज पाप-पुण्य का खाता रखता है, होतव्यता पर किसी का वश नहीं है, समरभूमि में लड़ते हुए प्राण देने पर मनुष्य का यश गंगाजी के यश की तरह होता है, न लगना, टोटका-टोना, राई-नौन उतारने से उपचार, गुनियाँ और नावते द्वारा जंत्र-मंत्र से झाड़-फूँक करना । इनसे स्पष्ट है कि १९वीं शती के अंतिम चरण में भी लोगों का विश्वास धर्म और तंत्र-मंत्र पर केंद्रित था ।

मध्ययुगीन लोककथाओं में भी 'इस देह का कोई ठिकाना नहीं है, करनी का फल मिलता है, भाग्य बलवान है, पूर्वजन्म के संचित कर्म फलित होते हैं, पुनर्जन्म होता है, परकाय-प्रवेश होता है, बलि से तालाब में जल भर जाता है, मंदिर और तालाब बनवाना पुण्य का काम है, पर्वस्थान का फल मिलता है, पेट ही सब करवाता है, पसीने की कमाई उत्तम होती है, नारी का हाथ पकड़ने से पती हो जाता है, नौलखा हार की रखवाली नागिन करती है, जन्मपत्री मिलाना और ज्योतिष से शुभ-अशुभ की जाँच, खाना खाने के पहले आगे देना अशुभ है' आदि लोकविश्वास अपने आप आ गए हैं । उनसे मध्ययुग की नाड़ी का निदान संभव है ।

मध्ययुगीन लोकगाथाएँ वीररसपरक, प्रेमपरक और नीति या धर्मपरक रही हैं । वीर-रसपरक गाथाओं में मनोगूजरी, मथुरावली, लक्ष्मीबाई, लोहागढ़, धनसिंह आदि की गाथाएँ हैं, जिनमें क्षात्र धर्म और शकुनापशकुन-संबंधी लोकविश्वास प्रयुक्त हुए हैं । 'पत' रखने और 'सत्त' के लिए प्राण देने का लोकविश्वास मुख्य था, पर शकुनापशकुन की पंक्तियाँ फल या परिणाम को पहले से ही कह देती हैं । उदाहरण के लिए, 'छींकत घुड़ला (या बछेड़ा) पलाने अमन जू (या अन्य के साथ जू) बरजत भये असवार' से असफलता का संकेत मिल जाता है । राछरों में भी ये लोकविश्वास मिलते हैं । राछरों में क्षणभंगुरता की द्योतक दो पंक्तियाँ या साखी का प्रयोग अधिकतर हुआ है-'सदा तुरइया रे ना फूलै, सदा न सावन होय । सदा न राजा रन चढ़ै, सदा न जोबन होय ।।' प्रेमपरक गाथाओं जैसे, सारंगा-सदाबृज, ढोला-मारु आदि में प्रेम, भाग्य, कर्म, ज्योतिष, जादू-मंत्र-संबंधी विश्वासों की भरमार है, जबकि धर्म-नीतिपरक गाथाओं में अवतार, सत्त, नीति, स्वर्ग-नरक, मानवयोनि, दया-प्रेम आदि संबंधी लोकविश्वास संग्रथित हैं ।

लोकगीतों में भी अनेक लोकविश्वासों की योजना हुई है । सुदिन, सुघरी और सगुन तो सुनिश्चित ही हैं । लमटेरा गीतों में एक-एक पंक्ति होती है, पर लोकविश्वास से जड़ित होकर वह कितनी सुंदर बन जाती है । इसका एक उदाहरण है-'मिलन खों बैयाँ फरकें रे, बैयाँ फरकें रे, दरस खों तरस रये दोऊ नैन रे...।' बाँहें और नैन के जोड़े से पंक्ति में संतुलन का सौंदर्य आ गया है । प्रथम अर्द्धपंक्ति में बाँहों का फड़कने का शकुन है और सात्त्विक कम्प भी । यह देह दुर्लभ है, भजन के बिना देह सूनी है, ईश्वर ही रचता है और मिटाता है, करम का लिखा कोई नहीं टाल सकता, हंस मोती चुगता है, प्रेम से ही प्रभु मिलते हैं, दान देने से स्वर्ग मिलता है, कोदों को दान में देने से नन्हे पति मिलते हैं, भौजी (भाभी) का हृदय कठोर होता है, बाँस आच्छादन करने से वंश बढ़ता है, पीपल में बरमदेव का वास है, हरदौल को निमंत्रण देने से विवाह में बाधा नहीं पड़ती, शुक संदेशवाहक है, मंत्र से रोग का उपचार होता है...आदि न जाने कितने लोकविश्वास लोकगीतों के भावों, विचारों और काव्यत्व को बल देते हैं । राई का उदाहरण देखें-

गोरी, हारै न जाव, गोरी हारै न जाव पीपर के पत्तन में देवता ।

मोरी चुनरी के छोर, मोरी चुनरी के छोर, राजा करोंदन में बीद गये ।

लोकविश्वास हे कि पीपल में देवता का वास है । पति कहता है कि जंगल न जाओ, वहाँ पीपल में देवता

रहते हैं । अर्थात् घर पर रहो, ताकि वह प्रेम-क्रीड़ा कर सके । पत्नी भी चतुर है । अपनी चुनरी करोंदा में उलझी बताकर उसे पास बुलाना चाहती है । लोकविश्वास का उपयोग इसर प्रकार करने से राई में काव्यत्व आ गया है । पुनर्जन्म में मनुष्य होंगे या नहीं, इस जन्म में मनुष्य की योनि बड़े भाग्य से मिली है, इस लोकविश्वास का सहारा लेकर ईसुरी कहता है-'मानुस होनें कै ना होनें, रजऊ बोल देव नौनें ।'

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आधुनिक काल

बीसवीं शती के प्रारंभ में ही इस अंचल की सांस्कृतिक चेतना में बदलाव दिखाई पड़ता है । मैथिलीशरण गुप्त के राष्ट्रीय मुक्तक १९०३-०४ ई. में रचे गये थे । १९०७-०८ ई. में उनके मुक्तक और गीत लोकप्रिय हो चुके थे । १९१२-१४ ई. में भारत-भारती के मुक्तक एक क्रांतिकारी अध्याय जोड़ चुके थे । तात्पर्य यह है कि दूसरे दशक से एक नये परिवर्तन का चरण अपने अंगदी पाँव रोप चुका था । दो दिशाएँ बिल्कुल स्पष्ट थीं-एक तो राष्ट्रीय चेतना का जागरण और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष तथा दूसरी वैज्ञानिक युग की बौद्धिकता का लोकजीवन में प्रभाव । फलस्वरुप लोकविश्वासों में भी परिवर्तन हुआ । एक तरफ रुढिबद्ध लोकविश्वासों का विरेध किया गया, तो दूसरी तकफ नये लोकविश्वासों का प्रसव प्रारंभ हुआ । पुराने और नये के बीच द्विविधा का भाव भी नयी मानसिकता की तीसरी दिशा थी

लोककाव्य में राष्ट्रीय चेतना की धारा १८४२ ई. की पारीछत की अंग्रेज़ों से लड़ाई के बाद ही फूट चुगी थी और बुंदेलखंड के हरबोलों ने १८५७ ई. के पहले घर-घर और गाँव-गाँव जाकर उसे प्रवाहित कर दिया था । ईसुरी के पहले खान फकीरे, दादूराम और गंगासिंह ने सत्तावन के संघर्ष का वर्णन किया था ।-३३ सन् १९४२ एवं ४७ के गीतों के अनेक उदाहरण मिलते हैं । महात्मा गांधी, सुभाष और चरखा, खादी, स्वदेशी आंदोलन, राजाओं का अत्याचार, स्वराज्य-प्राप्ति आदि उनके प्रमुख विषय रहे हैं । महात्मा गांधी के लिए अवतार का परम्परित लोकविश्वास इस समय भी लोकमुख में रहा है । स्वर्ग और मोक्ष के स्थान पर यश छा गया है । परम्परित लोकविश्वासों में मानव का क्षणभंगुरता (इक दिन चलो सबई कों जानें), राम ही रक्षक है (कीको को है संग सहेला, रक्षक राम अकेला), मानव का शरीर दुर्लभ है (गंगा फिर पाई ना पाई दुरलभ देइया मानस की), जन्मभूमि इंद्रपुरी (स्वर्ग) से भी बढ़कर है, अब सतयुग चला गया और कलियुग आ गया है (आ गओ अब कलजुग को पारो, सतजुग दै गओ टारो) आदि आज भी मान्य हैं, लेकिन रुढियों के प्रति विद्रोह भी जारी है-

कैसी छाई हिये नादानी, करत सदा मनमानी ।

खीर खांड़ को पिंड खाँय को देत बनाकर सानी ।

ढोर समान मान पित्रन कों देत तलैया पानी ।

जियों पिता की बात न पूँछी मरें भये बरदानी ।

'बलदेव' तजो पोप लीला कों तुम सों कहत बखानी ।। १।।

का मिल जात पथरिया पूजें, तुम्हें कछू नी सूजें ।

पूजन करत सदा जड़ केरो, जड़ बुद्धी बन गूँजें ।। २ ।।

उक्त पंक्तियों में पिंड देना, तपंण करना, पत्थर पूजना आदि को पोप लीला या पाखंड बताकर उसके विरुद्ध विद्रोह किया गया है । वैज्ञानिक आविष्कारों से आयी बौद्धिकता ने पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि के प्रति प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं । फिर भी कुछ वर्गों में परम्परित लोकविश्वास जमे हुए हैं । इस दृष्टि से इस अंचल में तीन प्रकार के वर्ग बनाये जा सकते हैं-(१) परम्परित लोकविश्वासों के अनुयायी, जिन्हें हम परम्परावादी कह सकते हैं, (२) रुढिबद्ध लोकविस्वासों या अंधविश्वासों के विरोधी तथा परम्परित लोकविस्वासों को मान्यता देने वाले, जिन्हें हम परम्पराशील मान सकते हैं, (३) पुराने लोकविस्वासों के स्थान पर नये लोकविस्वासों के समर्थक, जिन्हें परंपरामुक्त या स्वच्छंद के रुप में अभिहित किया जा सकता है । इस तरह लोकमन के तीन रुप हैं-एक जो परम्परा को सबकुछ मानकर चलता है, दूसरा वह जो बिल्कुल स्वच्छंद है और तीसरा वह जो समन्वयवादी होकर उपयोगी पुराने को ग्रहण करता है और नये को समर्थन देता है । यहाँ हम प्रचलित, अप्रचलित और अर्द्धप्रचलित लोकविस्वासों की बानगी दे रहे हैं-

१. मानव और जगत्-संबंधी लोकविश्वास

प्रचलित -मनुष्य की योनि श्रेष्ठ है, संसार के प्राणी और वस्तुएँ नश्वर हैं; कर्म का फल मिलता है, सुकर्मों से कीर्ति मिलती है ।

अर्दधप्रचलित -ब्रह्मा सृष्टि की रचना, विष्णु उसका पोषण और महेश संहार करते हैं; इस जन्म में किये कर्मों का फल अगले जन्म में मिलता है; जगत् की सभी वस्तुएँ ईश्वर की इच्छा से पैदा हौती, घटती-बढ़ती और नष्ट होती हैं ।

अप्रचलित -पृध्वी शेषनाग के फन पर टिकी है; युद्ध में जूझने से स्वर्ग मिलता है ।

२. प्रकृति-संबंधी लोकविश्वास

प्रचलित -वृक्षों में जीव होता है; फलदार वृक्षों को सींचना पुण्य है ; तुलसी, पीपल, अँवला, केला और वट की पूजा से इच्छा की पूर्ति होती है ।

अर्द्धप्रचलित -वृक्ष के पत्ते रात में तोड़ना पाप है मोरपंख से सपं नहीं आते; चींटियाँ और मछलियाँ चुगाने से पुण्य होता है ; कौआ मुँड़ेर पर बोलकर किसी के आगमन की सूचना देता है ; मृत्यु के समय गंगाजल और तुलसीदल मुँह में डालने से मोक्ष मिलता है ।

अप्रचलित -आँवले की पूजा से पाप-नाश; गाय की पूजा से मोक्ष मिलता है; चिड़िया के धूल में लोटने से वर्षा होती है; मछली के दाँत गले में पहनाने से बच्चे के दाँत जल्दी निकल आते हैं ; बेरी में भूत का वास होता है ।

३. धार्मिक लोकविश्वास

प्रचलित -देवी-देवताओं की पूजा से इच्छा की पूर्ति होती है; शुभ अवसरों पर देवताओं की पूजा और निमंत्रण से कार्य निर्वध्न संपन्न होते हैं; आत्मा अमर है; जन्म और मरण का चक्र चलता रहता है; पुनर्जन्म होता है; गंगा-स्नान सबको पवित्र कर देता है ; तीर्थ-यात्रा और पर्व-स्नान से पुण्य मिलता है ।

अर्द्धप्रचलित -प्रसाद चढ़ाने से देवता प्रसन्न होते हैं ; व्रत-उपवास का फल मिलता है; कथा और भजन-कीर्तन से जीवन पवित्र होता है; वृक्ष-पूजा, तीर्थ-यात्रा, भूखे को भोजन देने और अनाथ की सहायता करने से पुण्य होता है ।

अप्रचलित -नर या पशु-बलि से देवता प्रसन्न होते हैं ; देवी-देवता वेश बदल कर विचरण करते हैं; देवताओं की सवारी अधरात के बाद निकलती है; जप-तप से मोक्ष मिलता है; पाप करने से नरक मिलता है ।

४. अतिप्राकृत लोकविश्वास

प्रचलित -भूत-प्रेत किसी पुराने वृक्ष, पुरानी बेहर और पुराने खाली पड़े मकान में वास करते हैं; भूत-प्रेत तरह-तरह के कृत्यों से व्यक्ति को तंग करते हैं; भूत-प्रेत या चुड़ैल से बचने के लिए अग्नि या लोहा रखना और तंत्रों या मंत्रों का प्रयोग लाभकारी होता है ।

अर्द्धप्रचलित -अकाल मृत्यु होने पर प्रेतयोनि मिलती है; गड़े धन की चिन्ता में मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति भूत बन जाता है; भूत खजाने या सम्पत्ति की रक्षा करते हैं और अनधिकृत व्यक्ति को तंग करते हैं ।

अप्रचलित -चुड़ैल व्यक्ति का खून पीती है; प्रेतात्मा या चुड़ैल शेर या शेरनी का रुप रखकर बदले की भावना से हमला करते हैं और मार डालते हैं; भूत-प्रेत या चुड़ैल को किसी पात्र में बंदकर गाड़ देते हैं; राक्षस, दैत्य और दानव-संबंधी लोकविश्वास ।

५. कुषि-संबंधी लोकविश्वास

प्रचलित -अमावस्या को बैल हल में नहीं जोतते; माई न परसे भरे न पेट, मघा न बरसे भरे न खेत; स्वाँती गोहूँ आर्द्रा धान, न ब्यापै कीरा औ घाम; बरसन लागी ऊतरा, कोदों न खाय कूतरा ।

अर्द्धप्रचलित -मंगल और गुरुवार को सब्जी की कुशलता के लिए काछी होम-धूप देते हैं; बरसौ राम पकै धुनियाँ, खाय किसान मरै बनिया; साउन पैली पंचमी; जो गरजै अधरात, तुम जइयो पिय मालबै हम जैबी गुजरात ।

अप्रचलित -इंद्र पानी बरसाते हैं; जब तक रबी की बौनी होती रहती है, तब तक किसान बाल नहीं बनवाते; बौनी से बचे अनाज को दान करने से फसल अच्छी होती है ।

६. घर-परिवार-संबंधी लोकविश्वास

प्रचलित- कन्या के पैर पूजने से पुण्य होता है; पुत्री के घर पिता या कोई समकक्ष सदस्य खाना नहीं खाता; दक्षिण की ओर पैर करके सोना अमांगलिक है; पैले दिना को पाउनो दुसरे दिना को पइ, तिसरे दिना ना गओ तो बेइज्जती भइ ।

अर्द्धप्रचलित -बाँझ का शुभ कर्म में भाग लेने से अनिष्ट होता है; सूर्योदय के पहले आँगन बुहारने से घर में लक्षमी का निवास होता है; घर के सदस्य के विदेश जाने के बाद झाडू नहीं लगायी जाती ।

अप्रचलित -घर का द्वार दक्षिण की ओर होना अशुभ है; पुत्री की ससुराल के गाँव का पानी पीने से सद्गति नहीं होती; घर में दिया जलाकर उसका मुँह दक्षिण की ओर रखना अशुभ है ।

७. स्वारस्थ्य-संबंधी लोकविश्वास

प्रचलित -उपवास करने से स्वास्थ्य-लाभ होता है; पेट ठीक न रहने से सब रोग होते है; नीम की पत्तियाँ प्रात: सेवन करने से ज्वर नहीं आता निन्नें पानी जे पियें हर्र भून कें खायँ, दूद बियारी जे करें तिन घर बैद न जायँ ।

अर्द्धप्रचलित -बच्चों के रोने और कै करने पर अगर मुख से गंध आती है, तो उसे न लगी होती है और न उतारने का टोटका करने से बच्चा स्वस्थ हो जाता है; परया या तिजारी ज्वर टोटकों से ठीक हो जाता है ।

अप्रचलित -दूध डालने पर बच्चे को सफेद दुधी पहनाने से लाभ होता है; हैजा की रोक के लिए देवी की सवारी निकालते हैं ; सूखा रोग झाड़-फूँक या ताबीज से ठीक हो जाता है ।

८. नीतिपरक लोकविश्वास

प्रचलित -पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं; सेवा करै सो मेवा पाबै; जाके पाँव न फटी बीमाई, बौ का जानें पीर पराई; प्रेम में नेम नईं होत ; पराई आसा मरै उपासा; धावै सो पाबै; करता से करतार हारो ; मन केर हारे हार है मन के जीते जीत ।

अर्द्धप्रचलित -धरम करै धन ना घटै; बेटा सें बैटी भली जो कुलवंती होय; बड़े बोल को सिर उँचो; बड़ों का आर्शीवाद लाभ देता है ।

अप्रचलित -प्रजा के दुखी होने पर राजा को नरक मिलता है ; बाँट खाय बरक्कत होत; चाकर होकें का जीनै; बड़ों के सामने झुककर चलने से लाभ होता है ।

९. ज्योतिष-संबंधी लोकविश्वास

प्रचलित -ग्रहों के प्रकोप से हानि होती है; ग्रह-दशा पर व्यक्ति का सुख-दु:ख निर्भर है; नौ देवी के नौ दिन हर शुभ कर्म के लिए शुभ होते हैं; एकपाख दो गैना (ग्रहण) पिरजा मरै कै सेना ।

अर्द्धप्रचलित -आषाढ़-कुष्ण प्रतिपदा को बादल गरजने पर युद्ध होता है या अकाल पड़ता है; सास बहू की एकई सोर, लच्छो कढ़ गई पाखो फोर ।

अप्रचलित -पुष्य, पुनर्वसु नक्षत्रों में चूड़ियाँ पहनने पर पति-पत्नी को छोड़ देता है, रोहिणी नक्षत्र में पहनने पर पति की मृत्यु हो जाती है, लेकिन तीनों उत्तरा में पहनने से पति का सुख प्राप्त होता है; पौष में सोम, शुक्र और गुरुवार को अमावस्या होने पर हर घर सुखी रहता है ।

१०. शकुनापशकुन

प्रचलित -जलभरा कलश, मछली, नीलकंठ, दहीभरा बर्तन, श्मशान ले जाता हुआ शव, नेवला, बछड़े को दूध पिलाती गाय देखना शुभ और बिल्ली या सपं का रास्ता काटना, काना मनुष्य, छूछा घड़ा दिखाई दैना अशुभ ।

अर्द्धप्रचलित -पाँच-सात की संख्याएँ, पुरुष की दायीं और स्री की बायीं भुजा फड़कना, मंगल गीत सुनना शकुन और यात्रा के लिए जाते समय कुत्ते का भौंकना या गीदड़ का बोलना, सिर पर कौआ बैठना, बिल्ली का रोना, स्वप्न में सेंदुर ढुलक जाना अपशकुन ।

अप्रचलित -गोद में बालक लिए सुहागिन स्री, हाथी, वेश्या, ब्राह्मण, साधु देखना शकुन और तेली, विधवा, आसमान से तारे का टूटना देखना अपशकुन ।

११. अंधविश्वास

वे लोकविश्वास हैं, जो अनुपयोगी होने पर भी प्रचलन में रहते हैं । उनके प्रचलन का कारण या तो रुढि का दबाव है या फिर द्विविधा की मानसिकता । उदाहरण के लिए यात्रा के प्रारंभ में ही छींक होने पर यदि कोई टोकता है कि दो मिनट ठहर जाएँ, तो रुकना पड़ता है । मन में ऐसा लगता है कि कहीं छींक के कारण कुछ हो गाया तो ! दो मिनट रुकने में क्या हानि है ! कभी-कभी व्यक्तिगत अनुबंधन (कंडीशनिंग) से भी कोई अंधविश्वास जीवित रहता है । यदि एक-दो बार काना व्यक्ति मिलने पर यात्रा असफल रहती है, तो यात्रा करते समय काने व्यक्ति से परहेज करना पड़ता है । मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि जब मेरी दायीं आँख एक-दो बार फड़कती है, तब कोई शुभ सुचना मिलती है और जब दीयीं हथेली खुजलाती है, तब अर्थ की प्राप्ति होती है । यह भी पूर्वानुमान का अनुबंधन हो सकता है ।

कुछ लोकविश्वास बड़े विचित्र हैं । एक जाति संबंधी लोकविश्वास है कि 'माँगे कुरमी बार न देय । घींच मरोरै सबरो देय ।।'-३४ कहीं-कहीं यह वैश्य के संबंध में प्रचलित है । मूर्ति-संबंधी एक लोकविश्वास है कि प्रात: बालिका, दोपहर यौवना और संध्या वृद्धा के रुप में दिखाई पड़ती है ।-३५ बेटा-बहू की बलि देने से तालाब भरना, प्रात: गाँव का नाम लेने से उस दिन खाने को नहीं मिलना, मूर्ति का सोना उगलना आदि इसी तरह के लोकविश्वास हैं ।-३६ लोकगीतों में इन विचित्र विश्वासों का समावेश है । जैसे निम्न पंक्तियों में 'दिन के बैल और रात को मर्द बना लेना' एवं 'कोदों के दान करने से छोटे पति मिलना' कार उल्लेख है-

जादू मारकें बैल बना लओ रे,

दिन के बैलवा रात के मर्द बना लओ रे राम ।

मैंनें दये कोदों के दान बलम नन्ने मिले री,

मैंनें दये गोऊँ के दान बलम गोरे मिले री ।

सगुनौटी उठाना, रामशलाका प्रश्न में अंगुली एक अक्षर पर रखना आदि अलग रतह के लोकविरश्वास हैं । लोकगीत है कि 'ननद बाई सगुन तो धरो रे, सगुन तो धरो कब आहें तुमाये राजा वीर हो ।' नायिका ननद से सगुनौटी उठाने को कहती है कि उसके भाई कब आएँगे । सगुनौटी उठाने का रीति के अनुसार गेहूँ की राशि में से कुछ यानी कि मनचाहे गेहूँ उठाकर उन्हें गिनते हैं । यदि संख्या विषम हो, तो पहले से सोची बात पूरी होना संभव माना जाता है ।

अंतत: एक बात बिल्कुल सही है कि लोकविश्वास मन की वस्तु है । जिस युग में जैसा लोकमन होगा, वैसे ही लोकविश्वास प्रधान होंगे । एक युग के लोकविश्वासों से उस युग के लोकमन की पहचान संभव है, पर शर्त यह है कि उस युग के लोकविश्वास निश्चित होने चाहिए । इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर लोकविश्वासों का निर्धारण किया गया है । मेरी समझ में इस निर्धारण से लोकसंस्कृति की सही समझ में मदद मिलेगी ।

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संदर्भ-संकेत

१. महाभारत, आदिपर्व, ५७/२७

२. जातक कथा सं. ७४

३. विष्णु पुराण, एच. एच. विल्सन, १९६१ ई. पृ. २९६

४. रुपकषटकम् (समुद्र.), पृ. १८३ एवं गढ़ा सती अभिलेख सं. १३४२

५. अलबेरुनी का उद्धरण, चंदेल और उनका राजत्वकाल, केशवचंद्र मिश्र, पृ. १८७

६. प्रबोधचंद्रोदय, पृ. ९७

७. वही, पृ. १४१

८. रुपकषटकम् (समुद्र.), पृ. १५७

९. वही (रुक्मि.) पृ. ४२ (त्रिपुर.) पृ. १०३

१०. वही (हास्य.) पृ. १३६, १३२

११. वही, (हास्य.) पृ. १४३

१२. वही, पृ. १३६, १२१

१३. ' बे नर आपऊ सें मर जात हैं कर कर खोटे काम रे ।' , ' दोई पाटन के बीच में साबत बचो न कोय रे ।',

' मिलन खाँ तो बहियाँ फरकें हों, बहियाँ फरकें हों, दरसन खों फरक रये दोउ नैन ।' , धान बओ, बीरन धान बओ बहन धनबंती होय, दूध सींचो भौजी दूध सींचो ननद पुतबंती होय ।' आदि ।

१४. महाभारत, पृ. १३४ एवं १६५

१५. रामायन-कथा, पृ. ६८, छंद ३०

१६. छिताईतरित, पृ. ३७, छंद २५०-५१

१७. रामायन-कथा, पृ. १०७, छंद २५०-५१

१८. वही, पृ. ४९, छंद ८५

१९. वही, पृ. १३५, छंद ३६

२०. महाभारत, पृ. १९, छंद ८३-८४, पृ. १०४, छंद ४८, पृ. १७३

२१. परमाल रासो (महोबा कौ रायसौ), पृ. २८५, छंद १५, पृ. ३५०, छंद १२० पृ. १८१, छंद ४८३

२२. दोहावली, छंद ४५६, ४५७, ४५८, ४५९, ४६०

२३. बालकांड, दोहा संख्या १

२४. केशव ग्रंथावली, खंड ३, वीर चरित्र, ३१/१६-१८

२५. वही, जहाँगीर-जस चंद्रिका, छंद १७७-१७९

२६. विरहवारीश, बोधा, १/३०, १९/३१-३३

२७. कामरुप कथा, ५/३१, ७/२३, १५/७८, १५/१०१, ५/७९ एवं ९१. १५/६६ तथा विरहवारीश, ११/११, १९/६, २०/४३, २०/५३-५४

२८. छत्रप्रकास (काशी सं.) ११/३

२९. डॉ. भगवान् दास गुप्त की पुस्तक महाराज छत्रसाल बुंदेला, पृ. १४२ में उद्धृत पन्ना, पत्र सं. ४०, ६१, ७२, ७५

३०. छत्रप्रकास, ११/१५

३१. जगतराज की दिग्विजय, छंद २१९, २६१, १५३

३२. सत्रजीत रायसौ, छंद १४६; पारीछत कौ रायसौ, छंद १०; कृष्णचंद्रिका, पृ. २७५; पारिछत कौ रायसौ, छंद ३५२-५३; बाघाइट कौ राइसौ, छंद ९७; लक्ष्मीबाई रायसौ २/८, २४-२५; कृष्णचंद्रिका ५/४२-४३

३३. सुराज, म. प्र. आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल, बुंदेली लोकगीत के अंतर्गत संकलित

३४. हीरालाल: एक संकलन (सागर-सरोज), पृ. १३८

३५. सागर जिले के रानगिर की हरसिद्धि देवी के संबंध में प्रसिद्धि

३६. हीरालाल: एक संकलन, पृ. १९४, २५५, ४०५

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