Tuesday, September 28, 2010

अयोध्या की राख से फिर धुँआ उठने को है


श्रद्धा , २८ सितम्बर २०१०
अयोध्या की राख से फिर धुँआ उठने को है
जो ईमारत ढह चुकी थी नीव फिर खुदने को है
लोग भूल जाते तो बेहतर था उन यादो को
जिनके फैसले लौटा नहीं सकते बुझे हुए चरागों को
हर शहर ने ढ़ोया है बोझ अयोध्या का
बस हो सके तो अब अंत करो इस आतंक का
न बने मंदिर न बने मस्जिद बने तो बस मिसाल बने
फैसला जो भी हो पहले तो हम इंसान बने.

Sunday, September 26, 2010

कुरूप और शहरयार को ज्ञानपीठ पुरस्कार



मलयालम के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार ओएनवी कुरूप को वर्ष 2007 के लिए 43वां और उर्दू के नामचीन शायर शहरयार को वर्ष 2008 के लिए 44वां ज्ञानपीठ दिया जायेगा.

वर्ष 2007 के लिए 43 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले ओएनवी कुरूप का जन्म 1931 में हुआ और वह समकालीन मलयालम कविता की आवाज बने. उन्होंने प्रगतिशील लेखक के तौर पर अपने साहित्य सफ़र की शुरूआत की और वक्त के साथ मानवतावादी विचारधारा को सुदृढ़ किया. मगर उन्होंने सामाजिक सोच और सरोकारों का दामन कभी नहीं छोड़ा.

कुरूप पर बाल्मिकी और कालीदास जैसे क्लासिक लेखकों और टैगोर जैसे आधुनिक लेखकों का गहरा प्रभाव पड़ा. उनकी ''''उज्जयिनी'' और ''स्वयंवरम'' जैसी लंबी कविताओं ने मलयालम कविता को समृद्ध किया. उनकी कविता में संगीतमयता के साथ मनोवैज्ञानिक गहराई भी है. कुरूप के अब तक 20 कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्होंने गद्य लेखन भी किया है. कुरूप को केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, वयलार पुरस्कार और पद्मश्री से नवाजा गया है.

वर्ष 2008 के लिए 44 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गये शहरयार का जन्म 1936 में हुआ. बेहद जानकार और विद्वान शायर के तौर पर अपनी रचनाओं के जरिए वह स्व अनुभूतियों और खुद की कोशिश से आधुनिक वक्त की समस्याओं को समझने की कोशिश करते नजर आते हैं.

इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं, जुस्तजू जिस की थी उसको तो न पाया हमने, दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये, कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता. जैसे गीत लिख कर हिंदी फ़िल्म जगत में शहरयार बेहद लोकप्रिय हुये हैं.

इस वक्त की जदीद उर्दू शायरी को गढ़ने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फ़िराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया.


खुश होना की हम बेटियां है

खुश होना की हम बेटियां है,
किसी की आँखों की नन्ही तितलिया है.
हममे भी अब सम्भावनाये दिखती है,
दुनिया अब बहुत कुछ हमसे भी सीखती है.


Friday, September 24, 2010

पढ़ने लगे बिरहोर

संदीप कुमार, बगोदर, झारखंड से लौटकर

12 साल की गहनी कुमारी अब ठीक-ठीक हिंदी और अंग्रेजी पढ़ लेती है. हालांकि देश में गहनी जैसे लाखों बच्चे हैं, जो उससे कम उम्र में ही फर्राटेदार अंग्रेजी-हिंदी पढ़ते औऱ बोलते हैं. लेकिन गहनी उन बच्चों से अलग है. गहनी एक बिरहोर परिवार की बच्ची है. बिरहोर यानी कि एक आदिम जनजाति. आदिवासियों-जनजातियों में से भी जो सामाजिक-आर्थिक रुप से बेहद पिछड़े होते हैं, एक ऐसे ही परिवार की बेटी.
इससे पहले की पीढ़ी में किसी ने कभी पढ़ने की नहीं सोची. बिहार और झारखंड में बिरहोर कहने का मतलब है, पूरी तरह से जंगली समुदाय, जिसका नागर समाज से कोई रिश्ता नहीं है. लेकिन अबकि ये विशेषण बदले हैं. शिक्षा का क्या मतलब होता है ये पिपराडीह बिरहोरटण्डा के लोगों से पूछिए. नाम से ही साफ है कि यहां बिरहोर रहते हैं. पिपराडीह बिरहोरटण्डा झारखंड के गिरिडीह जिले के बगोदर प्रखंड में आता है. कल क्या करेंगे और क्या खाएंगे- यहां के बिरहोरों को इसका कुछ पता नहीं. वजह ये कि इनके पास कोई स्थाई काम नहीं है. जूट, सन या फिर सीमेंट के बोरे से रस्सी बनाना इनका पारंपरिक पेशा है, जिससे किसी तरह बिरहोरों के नमक-भात का बंदोबस्त हो पाता है. रहने के लिए घर के नाम पर पेड़ों की टहनियों-पत्तों से बनाए गए ‘कुंभा’ हैं या फिर छोटी-मोटी झोंपड़ी. लेकिन तमाम अभावों के बावजूद इन बिरहोरों की जो सोच हम सबको प्रभावित और प्रेरित कर सकती है वो है शिक्षा के प्रति इनका बढ़ता रूझान. खाने को लाले पड़ने के बावजूद पढ़ने की जो ललक यहां के बिरहोरों में दिखती है, वो काबिले-तारीफ भी है और काबिले-गौर भी. हालांकि पुरानी पीढ़ी के किसी भी महिला-पुरूष ने स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं की है पर नई पीढ़ी में पढ़ने-लिखने का उत्साह देखते ही बनता है.पिपराडीह बिरोहोरटण्डा यही कोई 12 घरों का एक झुरमुट है. चारों तरफ खेत और बीच में बिरहोरटण्डा. यहां पहुंचने पर एकबारगी आपको स्कूल नाम की किसी चीज की भनक तक नहीं लगेगी. बीच टांड़ में कटहल का एक पेड़ शांत खड़ा दिखेगा. इसी पेड़ के साये तले है बिरहोर बच्चों का स्कूल. दरअसल विद्यालय का अपना कोई भवन नहीं. पेड़ के नीचे बैठकर बच्चे पढ़ते हैं, बिल्कुल खुले में. हालांकि ठंड में सर्द हवाओं का झोंका और गर्मी में लू के थपेड़ों के बीच बच्चे जैसे-तैसे तो पढ़ लेते हैं पर बरसात के मौसम में दिक्कतें आती हैं. बारिश होने पर पढ़ाई रोकनी पड़ती है. बच्चों के पढ़ने के लिए साल में एक बार सरकार की तरफ से मुफ्त में किताबें मिल जाती हैं लेकिन कॉपी-कलम और स्लेट-पेंसिल का जुगाड़ बच्चों के अभिभावकों को खुद ही करना पड़ता है. और अच्छी बात ये है कि तमाम अभावों के बावजूद बच्चों के मां-बाप उन्हें ये सुविधाएं मुहैय्या कराने की भरपूर कोशिश करते हैं. पिपराडीह बिरहोरटण्डा के बिरहोर बच्चों में पढ़ाई-लिखाई का अलख जगाने का काम महादेव महतो नाम के एक युवा कर रहे हैं. महादेव महतो काफी समर्पित शिक्षक निकले. बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करने में उन्हें बेहद मेहनत करनी पड़ी. पकड़-पकड़कर बच्चों को पढ़ने के लिए उन्हें बिठाना पड़ा. नजर हटी नहीं कि बच्चे फुर्र. दरअसल यहां के बिरहोर बच्चों का काम तो पहले बस खेल-खिलंदड़ ही करना था. या तो जंगल जाकर खरगोश-नेवला पकड़ते या फिर लकड़ियां चुनकर लाते. पास के पोखर में मछलियां पकड़ने भी भाग जाते थे. लड़कियां भी पत्ते-दातुन लाने जंगल निकल जाती थीं. सो बिरहोर बच्चों को शुरू-शुरू में पढ़ने-लिखने में बहुत उकताहट महसूस होती थी लेकिन आज स्थिति एकदम जुदा है.शिक्षक महादेव महतो ने बच्चों में पढ़ने की ललक तो पैदा की ही, साथ ही उनके मां-बाप को भी जागरुक करना शुरू किया. आज आलम ये है कि पिपराडीह बिरहोरटण्डा का एक भी बच्चा स्कूली शिक्षा से दूर नहीं है. बच्चे जैसे ही ठीक ढंग से बोलना-चलना शुरू कर देते हैं, उनके मां-बाप स्लेट लेकर स्कूल भेज देते हैं. आज ये बच्चे जब राग में कविताएं पढ़ते हैं तो अनपढ़ रह गए उनके मां-बाप गदगद हो जाते हैं. कल तक जिन बच्चों को कमउम्र में ही दूसरों के घर काम करने के लिए भेज दिया जाता था, उन्हें स्कूल भेजकर ये लोग गर्व महसूस करते हैं.
इस गांव में एक साथ तीन पीढ़ियां देखने को मिल जाएंगी पर यहां के बिरहोर आदिम जनजाति की यह पहली पीढ़ी है जो बाकायदा पूर्णकालिक पढ़ाई में लीन है.
सबसे बड़ी बात ये है कि शिक्षा के नाम पर बिरहोर लोग लड़का-लड़की का फर्क नहीं करते जैसा कि ग्रामीण इलाकों में अक्सर देखा जाता है. अगर पिपराडीह बिरहोरटण्डा के इस अभियान विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों पर नजर फिराएं तो स्थिति एकदम साफ हो जाती है. स्कूल की पहली क्लास में कुल तेरह बच्चे हैं जिनमें से आठ लड़कियां हैं और पांच की संख्या में लड़के हैं. अमूमन देखा ये जाता है कि किसी क्लास में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में कम ही होती हैं. पर पिपराडीह बिरहोरटण्डा में मामला एकदम उलट है. हालांकि दूसरी क्लास में तीन लड़के हैं और दो लड़कियां पर बाकी के क्लास में लड़कियां ही ज्यादा संख्या में हैं. तीसरी क्लास में जहां तीन लड़के और चार लड़कियां हैं वहीं चौथी क्लास में सात लड़कों के मुकाबले नौ लड़कियां पढ़ रही हैं. स्कूल में कुल 41 बच्चे पढ़ रहे हैं जिनमें 23 लड़कियां हैं और 18 लड़के. सचमुच आंकड़े उत्साहजनक हैं.इस गांव में एक साथ तीन पीढ़ियां देखने को मिल जाएंगी पर यहां के बिरहोर आदिम जनजाति की यह पहली पीढ़ी है जो बाकायदा पूर्णकालिक पढ़ाई में लीन है. खास बात ये कि यहां के बिरहोर बच्चे किसी भी मामले में कमतर नहीं. 12 साल की गहनी कुमारी की ही मिसाल लें. वो चौथी क्लास में पढ़ती है पर आसानी से हिंदी और अंग्रेजी लिख-पढ़ लेती है. बीस तक का पहाड़ा उसे कंठस्थ है और जरुरत पड़ने पर वो दूसरे बच्चों को भी पढ़ा लेती है. बिरेश कुमारी भी पढ़ाई-लिखाई के मामले में अव्वल है. बिरेंद्र बिरहोर, अनिल बिरहोर, संतोष बिरहोर जैसे बच्चे भी लिखने-पढ़ने में कम होशियार नहीं हैं. परमिल, संजय, फूलकुमारी, बिरसु, कंचन, सुरेश, सावनी, चरकी, चंपा, संगीता, गुड़िया, मालती, बिनोद जैसे कई बिरहोर बच्चे हैं जो एक नया कल लिखने को बेताब दिखते हैं. अगर आज ये बच्चे पढ़ पा रहे हैं तो इसके लिए उनके अनपढ़ अभिभावकों को भी शाबाशी देनी ही होगी.