Wednesday, December 8, 2010

हिंदी और उर्दू का बहनापा


हिंदी और उर्दू के बहनापे को लेकर कादम्बनी के इस अंक (दिसम्बर २०१०) ने खासा आकर्षित किया . मुन्नवर राणा की यह पंक्तियाँ इस पूरे लेख का खुलासा करती है-
मै उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ, हिंदी मुस्कुराती है
लिपट जाता हूँ माँ से, और मौसी मुस्कुराती है
अमेरिका में इन दोनों भाषाओ के लिए एक ही लेक्चरार रखे जाते है और इसलिए उर्दू जानने वाले बाज़ी मार ले जाते है क्योंकि उर्दू तो वे सीखते है मगर हिंदी वे जानते हैं. वज़ह चाहे जो भी हो, इन दोनों भाषाओ को करीब ले आने की हिमायत करने वालों में उर्दू के जानकार ही ज्यादा दिखाई देते हैं वह चाहे असगर वजाहत हो, या कमर वाहिद नकवी या फिर शम्सुल इस्लाम .
मीडिया की भाषा में भी हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी का मिला जुला स्वरुप ही अधिक स्वीकारा जाता है.
इन सारी स्थितियों को देखते हुए ये साफ़ कहा जा सकता है की कोई भी भाषा जो अपने आपको सरल और सहज रूप में किसी भी भाषा के साथ अच्छा तालमेल रखते हुए मेल मिलाप से रहती है उसके आगे बढ़ने की सम्भावना अधिक रहती है किसी भी भाषा को दुष्कर रूप चलन में नहीं रह पता वह चाहे उर्दू हो या हिंदी या फर अंग्रेजी ही क्यों न हो.

No comments: