Saturday, September 24, 2011

अभिलाषाएं-६


उपवन

चलें वहीँ पर घुमने देश प्रेम में झुमने,
श्रद्धा से जिस धुल को आते हों सब चूमने,
जहाँ गा रही हों समाधियाँ बलिदानों के गीत को,
वहीँ हमारे फूल चढ़ाना उपवन कहे बहार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं-५


नाव

छिड़ा जहाँ संग्राम हो और आराम हराम हो,
घायल सेना के लिए जहाँ न कुछ बिश्राम है,
गरम खून की धार नदी बन कर उफनाती हो जहाँ,
उस सरिता में मुझे बहाना नाव कहे पतवार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं-४


चमड़ा

जहाँ बर्फ की हो गलन ठंडा ठंडा हो पवन,
ठिठरन से हों कांपते जहाँ सैनिकों के बदन,
उस पथ पर चलने वालों को अर्पित हो यह मेरा तन,
मेरी खाल के वस्त्र बनाना चमड़ा कहे चमार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं- ३


सोना

मै न तिजोरी में रहूँ छांह न धरती की गहुँ,
खोटे खरे स्वाभाव की बात कसौटी से कहूँ,
आये समय कभी संकट का देश पे मुझको वार दे,
ऐसा जेवर मुझे बनाना सोना कहे सोनार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं- २


लोहा

रक्त रंजित तलवार हो या विष बुझी कटार हो,
दुश्मन के ही खून से इस तन का श्रृंगार हो,
पानी वाले पानी मांगे मेरी पैनी धार से,
ऐसा पानीदार बनाना लोहा कहे लोहार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

Wednesday, September 21, 2011

अभिलाषाएं- १



मिट्टी
तन झुलसे अंगार से सुख न शलभ के प्यार से,
अंतिम सांसों तक लड़े चाहे ज्योति बयार से,
स्नेह सुधा पी बसुधा की आरती उतारूँ मै सदा,
ऐसा दीपक मुझे बनाना मिट्टी कहे कुम्हार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

Friday, September 2, 2011

सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा!


इस कविता का मूल नाम "कौन पूछेगा" है और इसके रचयिता ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि" है. यह कविता बचपन में मैंने जाने कितने मंचों पर और जाने कितनी बार पढ़ी. यह कविता आज भी अप्रासंगिक नहीं कही जा सकती, क्योंकि आज भी हर कोई अपने आप को सबसे महत्वपूर्ण मानता है और अपने अहंकार में डूबा रहता है, लेकिन इन सारे खासम ख़ास लोंगो का जब हकीकत से पाला पड़ता है तो उन्हें दिखाई देता है की एक आम इंसान भी कैसे सबसे महत्वपूर्ण हो सकता है. हाल फिलहाल में भारत सरकार के कई दिग्गजों की हालत अन्ना जैसे एक आम इंसान के सामने कुछ ऐसी ही हो चली थी. हालांकि इस कविता के बीज में दो मंशाएं साफ़ दीखती है एक तो 'आम' के महत्व के आगे अन्य फलों के स्वाभाविक रंग रूप की हेठी को बड़े ही रोचक रूप में व्यक्त करना और दूसरे महर्षि दयानंद की प्रतिष्टा को स्थापित करना.

सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा!

लगा जब आम डाली पर फटी छाती अनारों की,
लगे बेचारे पछताने कि हमको कौन पूछेगा.

चढ़े आकाश को नारियल जटा धारण किये सर पर,
पड़ा है पेट में पानी कि हमको कौन पूछेगा.

सुनी जब आम कि शोहरत पपीते पड़ गए पीले,
लगा फांसी रहे लटके कि हमको कौन पूछेगा.

रहा इक दाल पर केला सुनी जब आम कि बढ़ती
किया बस बंद निज बढ़ना कि हमको कौन पूछेगा

बिचारे संतरे ने जब सुना यशगान आमों का,
कलेजे के हुए टुकड़े कि हमको कौन पूछेगा.

कि बढ़कर क्या करेंगे हम यही अंगूर ने सोचा,
इसी से रह गया छोटा कि हमको कौन पूछेगा.

सुनी जब आम कि शोहरत तो वह जल भुन गया जामुन,
इसी से हो गया काला कि हमको कौन पूछेगा.

फलों का राजा आम बन गया सब रह गए पीछे,
सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा.

इसी भांति दयानंद की हुई दुनिया में जब शोहरत,
बिधर्मी पड़ गए फीके की हमको कौन पूछेगा.