saabhar- media for wrights http://www.mediaforrights.org/mediaandrights/hin/media_ke_manak.html भूमंडलीकरण की बीस सालों की प्रक्रिया के बाद अब विकास के तय मानकों के बीच से गरीबी, लाचारी, बेबसी का चेहरा साफ नजर आता है। तमाम जाले साफ हुए हैं। विकास की पक्षधरता सबके हित में समान रूप से नहीं है। आंकड़ों के खेल कुछ और तस्वीरें बयां करते हैं, पर सच्चाई कुछ और है। जीवन संघर्ष मुश्किल होता जा रहा है। जनकल्याणकारी शासन की अवधारणाएं लगातार कदम पीछे खींच रही हैं। निजीकरण की प्रक्रियाओं के बीच सार्वजनिक ढांचों को जानबूझकर कमजोर करने की प्रक्रियाएं जारी हैं। कर्ज बेजा हैं पर सब जानते हुए समझते हुए भी चुप रहने और सहते जाने के दबाव हैं। पर क्या मीडिया भी इस पूरी तस्वीर को साफ तौर पर समझ पा रहा है। समझ रहा है तो क्या उस पर पर्याप्त सवाल खड़े हो रहे हैं। सवाल हैं भी तो कितने। उनकी दमदारी कितनी है। क्या वे लगातार हैं, बार-बार हैं। वे केवल चंद व्यक्ति की तरफ से हैं या सांस्थानिक। सवालों पर भी कितने और किस तरह के दबाव हैं। और अदद तो यह कि क्या इस पूरे परिप्रेक्ष्य में उन सवालों, सामाजिक सरोकारों के लिए खुद मीडिया की मान्यताएं और मूल्य क्या हैं। क्या वह केवल अपना जनोन्मुखी चेहरा खुद को बाजार में स्थापित होने लायक ही रखे रहना चाहता है या इससे आगे की भावनाएं भी निहित हैं। गौर करें तो तस्वीर निराश करने वाली अधिक लगती है। एक सामान्य अध्ययन में ही समझ में आता है कि मानव विकास और जनसरोकारों के मुद्दों के लिए मीडिया संस्थानों की तरफ से पहल अत्यंत कम हैं। अब जन से सरोकार नहीं बाजार से सरोकार है। जन से केवल उतना ही सरकार है जो बाजार में टिके रहने के लिए बेहद जरूरी लगता है। बाजार और लाभ के धंधे के बीच लोगों के असल मुद्दे तो सिरे से गायब ही हैं। योजना आयोग द्वारा देश के सौ सर्वाधिक जिलों में मीडिया कंटेंट को लेकर किया गया एक अध्ययन बताता है कि कुल खबरों का केवल पांच फीसदी हिस्सा गरीब और विकास से संबंधित खबरों के लिए था। जब देश के सबसे गरीब जिलों में यह स्थिति है, जहां कि मीडिया की भूमिका और भी प्रभावी होने की जरूरत है, चिंतनीय है। मीडिया भी बाजार का हिस्सा इस बात से बिलकुल इंकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया बाजार का हिंस्सा है। इसका संचालन निजी हाथों में है। बड़ा पूंजी निवे6ा है। पूंजी की प्रवृत्ति बेहतर उत्पाद प्रस्तुत कर लाभ कमाना है। यह लोकतंत्र के तीन अन्य स्तंभ की तरह नियमों, कायदों प्रावधानों के तहत बंधनकारी भी नहीं है। संविधान इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है। पर क्या यह अन्य उत्पादों की तरह ही अंतिम उपभोक्ता तक की संतुष्टि के लिए जिम्मेदार है। क्या यह सारी सूचनाएं समाज तक पहुंचा रहा है या फिर उनसे वंचित भी किया जा रहा है। और फिर जब हम मीडिया को निजी हाथों में होते हुए भी एक लोकसंस्थान का दर्जा देते हैं, क्योंकि इसकी गतिविधियों का समाज और संस्कृति पर व्यापक असर होता है तब क्या इसे सामाजिक जवाबदेही की दायरे में लाया जाना चाहिए। इस जवाबदेही का स्वरूप क्या हो, इस पर भी विमर्श जरूरी है। आजादी से पहले की पत्रकारिता का मकसद सभी भली-भांति जानते हैं। आजादी की लड़ाई में एक सशक्त माध्यम की भांति इसका उपयोग बेहद जरूरी दिखाई देता था। तभी पत्रकारिता एक मिशन भी थी और जरूरत भी। गांधी, से लेकर तमाम गरम और नरम दलों का एक बेहतर हथियार थी पत्रकारिता। संकट एक जैसा था, सरोकार एक जैसे थे और मकसद भी एक ही था ? आजादी। सभी के एक जैसे सुर निकलना लाजिमी था। पत्रकारिता का मिशन तय था। अओप्निवेशिक शासन से मुक्ति पाने की इस प्रक्रिया में पत्रकारिता के योगदान को कोई नहीं नकारता। उसी जमाने से पत्रकारिता अन्य पेशों की अपेक्षा बहुत अलग स्थान पर खड़ी थी। समाज में अहमियत और सम्मान प्राप्त था। उदारीकरण, भूमंडलीकरण और इस बहाने निजीकरण की पक्रियाओं को आज से बीस बरस पहले जब हिंदुस्तान में गति दी गई तब इसके प्रभाव की शुरूआत मीडिया पर भी समान रूप से दिखाई देने लगी। क्या अखबार भी एक साबुन या अन्य ऐसे ही प्रोडक्ट है यह सवाल बार-बार सुनाई देने पड़ने लगा और इस बात पर तमाम तरह की बहस चारों ओर से चल पड़ी। यह वह दौर था जबकि अखबार साज-सज्जा ओर प्रिंटिंग के नजरिए से तो उन्नत हो रहे थे लेकिन उनमें सरोकार और मानव विकास के विषय लगातार घटते जा रहे थे। यह वह दौर था जबकि समाचार पत्रों में वैचारिक बहस, मंथन के लिए जगह कम होने की शुरूआत हो चुकी थी। यह वह दौर था जब अखबार बाजार से लगातार प्रभावित हो रहे थे और विज्ञापनों का स्थान भी लगातार बढ़ता जा रहा था। इस पूरे परिप्रेक्ष्य के बीच विकास के मुद्दों के लिए विशेष प्रयासों की जरूरत लग रही थी और यहीं से विकास पत्रकारिता की शुरूआत एक नए सिरे और जरूरत के हिसाब से मानी जाती है। जनसरोकारों की बातें करने और समाज को दिशा देने की भूमिका निभाने वाला मीडिया खुद अपनी भूमिका पर सबसे कम सवाल खड़े करता है। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर खबरों के चयन और प्रस्तुतिकरण को लेकर सबसे ज्यादा सवाल उठाए जाते हैं। टीआरपी की लड़ाई या रीडरशिप को लेकर चटपटी खबरों को लेकर मीडिया का आग्रह किसी से छिपा नहीं हैं। भूत-प्रेत, बिग बी, और इसी तरह की खबरें प्राइम टाइम के न्यूज आइटम होते हैं, पर विदर्भ में सैकड़ों किसानों की हत्या या भूख और कुपोषण से मौत इसकी सुर्खियां क्यों नहीं होते। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है जिस तेजी से संसाधनों और सुविधाओं ने तरक्की की उसी गति से जनोन्मुखी खबरों का स्थान मीडिया में कम होता गया। पेड न्यूज और सरोकार पिछला साल चुनावों के दौर में पत्रकारिता पर एक अलग किस्म के संक्रमण की चुनौतियों से रूबरू कराने वाला था। चुनावों के दौरान अनेक अखबारों ने अपने यहां खबरों के प्रकाशन के लिए पैकेज तय किए। यह थे तो विज्ञापन लेकिन खबर की शक्ल में। अंतर करना मुश्किल था, खबर है या विज्ञापन। न्यूज चैनलों ने प्रायोजित खबरों के लिए टाइम स्लॉट तय किए। जर्नलिस्ट को मार्केटिंग विभाग के लोगों की तरह ही टार्गेट दे दिए गए। यह पहला मौका था जब घोषित रूप से ऐसे साथी जो खबरों के संकलन का काम करते थे वे पैकेज के संकलन के लिए भिड़ा दिए गए। यह खबरों का काम करने वाले लोगों के लिए संस्थान के व्यावसायिक हितों में शामिल होने का पहला मौका था। एक पत्रकार मित्र के ही शब्दों में कहें तो मालिक यह समझता है कि पत्रकार फील्ड में रहते हुए बहुत कमाई करते हैं इसलिए उसने व्यावसायिक हितों में भी दबावपूर्ण तरीके से साझीदार बनाया। टारगेट पूरे करना नौकरी करने की पहली और अंतिम शर्त बनी। जाहिर है टारगेट पूरी करने की प्रक्रिया में दमदार लोगों के सामने झुकने को मजबूर कर दिया। केवल उस छोटे से वक्त के लिए नहीं बल्कि उससे आगे के समय के लिए भी। जिसने इस धारा में खुद को नहीं ढाल पाए उन्होंने अपने-अपने विकल्पों की तरफ रूख कर लिा। पर ऐसे विकल्प गिने-चुने ही थे। आर्थिक संसाधन जुटाने की दृष्टि से पत्रकारिता विज्ञापन से आगे भी बढ़ चुकी थी। ब्यूरो कार्यालय से लेकर मुख्यालयों तक में यह प्रवृत्ति पिछले साल अलग-अलग रूपों में सभी ने करीब से देखी। विकास के मुद्दे पर बात करते हुए पेड न्यूज और पत्रकारिता के दूसरे सरोकारों पर बात करना थोड़ा अजीब लग सकता है, पर दरअसल यह अपरोक्ष रूप से कहीं न कहीं विकास और जनसरोकार के मुद्दों को प्रभावित करने वाला है। मीडिया से चुनाव के दौरान निष्पक्ष विशलेषण की अपेक्षा की जाती है। पेड न्यूज के दौर में यह कहां तक संभव होगा, कहा नहीं जा सकता। यह लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की दृष्टि से भी ठीक नहीं हैं। पेड न्यूज के दबाव में वॉच डॉग को चेताने की अनुमति नहीं है। निष्पंद और बेजान खबरों से अखबार के पन्ने भरे पड़े हैं। लोगों तक वह खबरें ही पहुंच पा रहे हैं जिसे कई तरह के लोग अपने-अपने मकसद और सरोकार से मीडिया तक लाना चाह रहे हैं। इसमें खुद मीडिया की भूमिका बेहद सतही, सपाट नजर आती है। इसे समझने के लिए सतह से नीचे उतरकर उनके निर्माण की प्रक्रिया में जाना होगा। यहीं से समझ में आता है कि खबरें पैदा करने वाले लोग कौन हैं। अफसरों के घरों से करोड़ों की काली कमाई निकलने के बाद तो मीडिया इसे हाथों-हाथ लेकर तमाम एंगल्स से खबरें परोसता है, लेकिन क्या इससे पहले के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाए जाते हैं। तमाम जनकल्याणकारी योजनाओं का क्या हश्र है, आदिवासी और दूरस्थ इलाकों की क्या स्थिति है इस बात कितने सवाल मीडिया में हैं। यह शून्यता कभी-कभार ब्रेक हो जाती है। पर वर्तमान सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में यह बार-बार टूटना बेहद जरूरी है। जन सहभागिता और मीडिया 5मीडिया में लोगों की भागीदारी के मौके हों एक बेहतर मीडिया के लिए यह जरूरी माना जाता है। खबरों, विचारों पर लोगों की प्रतिक्रियाएं उसे और बेहतर बनाने में मदद करती है। पत्र संपादक के नाम इसका एक बेहतर जरिया हुआ करता था। पिछले कुछ सालों में लगभग पूरे मीडिया से इस कॉलम के लिए इसके लिए स्थान बेहद कम हुआ है। इससे मीडिया में लोगों की भागीदारी में भी कमी आई है। केवल कुछ अखबार ही इन पत्रों को तरजीह देकर प्रकाशित कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ लोगों की तरफ से भी इस तरह का लेखन कम हुआ है। पर इसमें यह भी देखा जाना चाहिए कि इस तरह के कॉलम्स को अखबार खुद कितना प्रोत्साहित कर रहे हैं। ठीक यही बात आलेख पर भी लागू की जा सकती है। कई मीडिया हाउस ने तो इसके लिए पैनल ही तय कर दिए हैं। इससे सभी लोगों के और सब तरह के विचारों के लिए स्थान कम हुआ है। इस बीच अच्छी कोशिश यह दिखाई देती है कि कई अखबारों ने अपनी ओर से पब्लिक पार्टिसिपेशन बढ़ाने के लिए डिबेट आयोजित की हैं। पर उनमें भी सवाल डिबेट के चयन का है। यह डिबेट भी एक लक्षित वर्ग तक ही सीमित है। डिबेट में कौन शामिल होगा यह अखबार के मार्केटिंग टीम मेम्बर्स तय करते हैं। अखबार के कंटेंट पर बहस गायब है। अखबार में क्या होना चाहिए, इस पर बहस गायब है। असल में अखबार अब अपने कंटेंट को लेकर बहस चाहते ही नहीं हैं। ख़बरों को लेकर, विचारों को लेकर, उनकी पक्षधरता को लेकर अखबार के अंदर भी बहस हो इस बात की गुंजाइश बेहद कम है। इसलिए पिछले कुछ सालों में मीडिया हाउसेस के अंदर के माहौल में बैचेनी बेहद बढ़ गई है। वहां ऐसे मौके जानबूझकर नहीं दिए जा रहे जिनसे अखबार में काम करने वाले लोगों को बौदिधक विमर्श चिंतन-मनन के मौके मिलें। किसी जमाने में अखबार के कार्यालयों में व्यवस्थित लाइब्रेरी हुआ करती थीं, अब नहीं हैं। जो हैं उन्हें ढर्रे पर चलाया जा रहा है। नए कार्यालयों में तो इन्हें विकसित ही नहीं किया जा रहा। अखबार के अंदर वैचारिक लेखन के अवसर वैसे ही बहुत कम हैं, और नौकरी करते हुए अखबार के बाहर लेखन पर तो बिलकुल ही पाबंदी है। इंटरनेट नहीं है, है भी तो उस पर जासूस नजर। इन सभी के क्या मायने हैं। क्या मीडिया मालिक यह चाहते हैं कि लोग उसकी भूमिका पर सवाल खड़े करने लग जाएं। अब जबकि पूंजीवादी घरानों मीडिया को एक इंडस्ट्री मानकर इस ओर आ रहे हैं तब यह खतरा और भी बढ़ा लगने लगा है। राकेश मालवीय |
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सबसे पहले तो सलमा ज़ैदी साहिबा आपको मुबारकबाद कि आपने मीडिया से जुड़े मामले को जनता के सामने रखा. अब रही अश्लीलता और फूहड़पन की बात तो इसके लिए हम सभी दर्शक भी ज़िम्मेदार है. हाँ, यह ज़रूर है कि मीडिया को अपना काम बहुत ही सावधानी और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ करना चाहिए क्योंकि आज का मीडिया एक बेहतर समाज के निर्माण में बहुत सहायक हो सकता है. इसकी वजह यह है कि हम सभी मीडिया को अपने बहुत क़रीब महसूस करते हैं और सोचते हैं कि मीडिया जो कुछ परोस रहा है वही सच है. लेकिन आजकल पैसे की मारामारी में कुछ एक चैनेल और कुछ एक पत्रकार बंधु इसका ग़लत फ़ायदी भी उठा रहे हैं. उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसे से मतलब है. देखिए, पैसा आज की ज़िंदगी में सभी की पहली ज़रूरत है लेकिन उसके साथ हमें अपनी बुनियादी ज़िम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए क्योंकि इसी पर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य टिका है.
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एक आध को छोड़ कर भारत में कोई भी समाचार चैनेल सम्मानीय नहीं है. यदि बीबीसी भारतीय हितों की कवरेज के लिए एक हिंदी-अंग्रेज़ी टेलीविज़न चैनेल शुरू कर सके तो बहुत अच्छा होगा.
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सलमा जी!
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने, ये सही है की आज मीडिया में भी परिवर्तन आया है और दर्शकों में भी, पहले परदे के पीछे की बातें परदे के पीछे ही रखी जाती थी, लेकिन आज वो सब कितना सामने आ गया है ये आप और हम सब जानते हैं. अपनी टी आर पी के चक्कर में टीवी चैनल्स जो हमारे समाज को दिखाते है उसका सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ता है, आज एक बच्चा 10 साल का होते-होते कितनी वो चीजे देख लेता है जो उसे नहीं देखनी चाहिए, और सास-बहू के सीरियल ने समाज में एक तरह का बिखराव, एक-दुसरे के प्रति इर्ष्या, जलन और षड्यंत्र पैदा कर दिए हैं. अखबारों में भी चटपटी न्यूज़ की आड़ में क्या परोसा जाता है ये हम सब जानते हैं. मैं ये कहूँ की सबसे ज्यादा अगर समाज पर असर पड़ा है तो वो है टीवी. मीडिया में भी अब वो निष्पक्षता नहीं रही जो पहले थी, आज आप कोई सा न्यूज़ चैनल देखे उसपर हर टाइम ब्रेकिंग न्यूज़ आती ही रहती है. छोटी सी बात को कितना बड़ा बताकर पेश किया जाता है. मीडिया में भी कुछ लोग ऐसे है जो सिर्फ अपना फायदा देखते हैं. उन्हें समाज की फिकर नहीं है. सब अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं. सिर्फ बहसें होती है और उनका परिणाम शुन्य होता है. मीडिया को सबसे पहले अपना मुनाफा नहीं देखकर समाज और लोगों के बारे में सोचना चाहिए. मैं ये नहीं कहता की मीडिया ने समाज को नई दिशा नहीं दी, मीडिया ने समाज को जो दिशा दी है उसके लिए हम उसके आभारी हैं, पर आज कहीं न कहीं मीडिया के आदर्श धूमिल हो गए हैं. उसे अपना दायित्व समझना चाहिए.
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आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हो पाना कठिन है कि बीबीसी ने इस परंपरा का पालन किया है. बीबीसी की तटस्थता और निष्पक्षता असंदिग्ध है? ब्रिटेन में कोई संदिग्ध भी पकड़ा जाए तो बीबीसी के लिए वह आतंकवादी होता है, पर भारत में कोई आतंकवादी हमला होता है तो उसे चरमपंथी हमला कहा जाता है. उदाहरण बहुतेरे हैं. फेहरिस्त लंबी हो जाएगी.
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बहुत अच्छा लिखा है आपने सलमा जी लेकिन यह बीबीसी को भी समझना चाहिए कि उसने भी वक़्त के साथ बदलाव किया है.
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मेरा विचार है कि भारत के सब रिपोर्टरों को दिन में कम से कम एक घंटे बीबीसी और सीएनएन देखना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि गुणवत्ता क्या होती है. मेरा मतलब है दिल्ली या बंबई में ( अब बालासाहेब जो चाहे कहें, मैं तो बंबई या बॉम्बे ही कहूँगा), तो इन शहरों में जिस तरह की रिपोर्टिंग होती है, उस पर हंसी ही आती है. यह लोग यह नहीं सोचते कि भारत अब तीसरी दुनिया का देश नहीं रहा है. हालाँकि मीडिया ने इसे पाँचवीं दुनिया का देश बना दिया है. क्योंकि मैं स्पेनी भाषा बोल सकता हूँ और मेक्सिकन न्यूज़ देखता हूँ तो मुझे यह पता है कि वह भारत से कहीं बेहतर हैं.
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इस बात पर कोई दो राय नहीं हो सकती की मीडिया वो दिखाता है जो लोग देखना चाहते हैं लेकिन इससे भी बड़ी और महतवपूर्ण बात है कि लोग वो देखते हैं जो मीडिया दिखाता है.
आज मीडिया की पँहुच सर्वत्र है और जनमानस को प्रभावित करने की उसकी क्षमता भी काफी बढ़ गई है. ऐसे में मीडिया को काफी सतर्क रहकर पूरी ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करने की जरुरत है. सिर्फ टीआरपी बढ़ाने की चिंता, राई का पहाड़ बनाने की कोशिश और हलके-फुल्के मनोरंजन के नाम पर सस्ता और फूहड़ सा कुछ भी परोसने की कवायद से परे हटकर मीडिया को अपना रोल दायित्व के साथ निभाने की जरुरत है.
जहा तक बीबीसी हिंदी का सवाल है, तो मेरा मानना है कि एक निष्पक्ष और विश्वसनीय समाचार चैनल के रूप में इसका सानी नहीं है.
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सलमा जी
सबसे पहले आपको बधाई की आपने " मीडिया और लोकहित" जैसे मुद्दों पर आपने लिखा और हम जैसे आम आदमी को जागरूक किया, मीडिया के एक छात्र होने के नाते मैं भी प्रबुद्ध पत्रकारों और देश के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले इस भाग से रूबरू होते रहता हूँ. उन्हें सुनकर और करीब से जानकार एक सवाल आज भी मेरे मन में कौंधता है कि वो पहला व्यक्ति कौन होगा जो शुरुआत करेगा. इस बासठ साल में हम इतने बदल गए लेकिन वैश्वीकरण और " टीआरपी" की होड़ में मीडिया जगत पर उठती उंगलिया मानो थमने का नाम ही नहीं ले रही हैं.
क्या सुधार की कोई गुंजाइश है...तो ऐसा कब हो पायेगा. अगर हां तो शायद पत्रकारिता का विश्वास लोगों के बीच और भी मजबूत हो पाएगा जैसा आपके बीबीसी ने किया है, जिससे हम जैसे नवोदित को आये दिन उस हाथ की उठती एक उंगलियों का सामना नहीं करना पड़ेगा जिसकी तीन उँगलियाँ खुद उठने वाले हाथ की तरफ होती हैं.
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सलमा जैदी साहिबा. बहुत शुक्रिया जो आपने ये मुद्दा उठा डाला. यकीनन आपकी बात में सच्चाई है पर क्या ये भी सच नहीं की बीबीसी भी अब उसी रंग में रंगती जा रही है. वरना जब भी बीबीसी पर आता था तो देश विदेश की मुख्य खबरें विस्तार से मिलती थी. पर अब बीबीसी हिंदी डॉट कॉम का वही हाल है. तो फिर दूसरो की खामी निकालने का हक आपके पास है ही नहीं इसपर सवाल उठते है!
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मैं समझता हूँ सलमा जी की बात सही है. आज़ादी से पहले मीडिया की भूमिका लोकसंदेशवाहक की होती थी. लेकिन अब वह पैसा कमाने की मशीन बन कर रह गया है. यह दुर्भाग्य की बात है कि मीडिया की समाज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है. लोकतंत्र में जब सभी स्तंभ कमज़ोर हैं तो लोकतंत्र की ज़रूरत ही क्या है. मेरी राय है कि संपूर्ण व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए और इसमें मीडिया एक अहम भूमिका अदा कर सकता है.
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सलमा जी!
बिलकुल सही मुद्दा उठाया है आपने. लेकिन ये बात पूरी तरह से सच नहीं है कि लोग जो देखना चाहते हैं मीडिया वही दिखाता है. समाचार चैनलों पर जिस तरह से टीआरपी के लिए कभी नाग और नागिन के नृत्यों को तो कभी किसी बाबा के चमत्कार को दिखाया जाता है और वो भी पूरे फ़िल्मी अंदाज़ में. समाजिक सरोकारों से सम्बंधित मुद्दे तो गायब ही रहते हैं, और दिखाया भी जाता है तो गहराई में जाकर चर्चा नहीं के बराबर ही होती है. मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए. हमें गर्व है कि कम से कम बीबीसी इन सब से अलग है.
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सलमा जी, इससे पहले कि मैं कोई टिप्पणी करूँ, अपने बारे में कुछ बताना चाहता हूँ. मैं अमरीका में रह रहा भारतीय नागरिक हूँ. पिछले आठ साल से बीबीसी हिंदी का पाठक हू. मैं बीबीसी अंग्रेज़ी साउथ एशिया पेज और बीबीसी हिंदी का पन्ना लगभग रोज़ ही देखता हूँ. यह सब आपको यह बताने के लिए कहा कि मैं साइट की शुरुआत से ही इससे जुड़ा हूँ और मैंने इसे आगे बढ़ते देखा है. मै अन्य समाचार चैनेलों की पत्रकारिता के स्तर पर टिप्पणी नहीं करना चाहता. उसके बारे में लोग पहले ही कह चुके हैं. लेकिन बीबीसी हिंदी के बारे में आपके कथन से मैं सहमत नहीं हूँ. मुझे लगता है कि बीबीसी हिंदी को अभी और प्रगति करने की ज़रूरत है. आपको अंग्रेज़ी साइट के बराबर पहुँचने के लिए अभी बहुत कुछ करना होगा.
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महोदया, आपका विचार पढ़ कर अच्छा लगा. एक बात समझ में नहीं आती कि मीडिया कैसे कहती है कि हम वहीं दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहती है. क्या कभी ऐसा सर्वेक्षण हुआ है. मुझे लगता है कि जब मौलिकता की कमी हो जाती है तो बेकार के कार्यक्रमों को दर्शकों के सामने परोसा जाता है.
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सलमा जी की बात में कोई तर्क नहीं है. ये सिर्फ अपनी बिरादरी को बचाने की कोशिश है. हर बात को यह कह कर कि दर्शक ऐसा चाहते हैं जस्टिफ़ाई नहीं किया जा सकता. इस बात को जानने के क्या आधार हैं? मीडिया के मालिक वास्तव में अपना एजेंडा लागू करते हैं, दर्शकों के कंधे पर अपनी बंदूक रख कर. किसी को पैसा चाहिए, कोई अपनी सरकार को खुश रखना चाहता है, बदनाम बेचारा दर्शक होता है. दर्शक तो धर्म की खबरें बड़े चाव से देखती-सुनती है, क्यों नहीं बीबीसी उसे प्रसारित करता है?
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पैसा बोलता है -यही फलसफा हो गया है दुनिया का. और इसकी जुगाड़ करना कोई मीडिया से सीखे. मगर हर कोई अपने को पाक साफ दिखाने में लगा है. किस-किस का नाम लूँ. मीडिया और समाज का सम्बन्ध पारस्परिक है- दोनों एक दूसरे को सजा-बजा रहे है. लेकिन सूचनाओं की इस चमकती-दमकती ऑर्केस्ट्रा में इंसानियत और हितकर सच्चाई कहीं खो गई है. काश हम इसे बचा पाते तो बहुत कुछ बच जाता जो हम गंवा रहे हैं. अब विश्वास का आलम ना रहा और मगर श्रोताओं या दर्शकों या पाठकों के लिए एक अच्छी चीज निकल कर सामने आयी है कि वे अपने विवेक से काम लेने के लिए मजबूर हो गये हैं. वरना सूचनाओं के गोलमाल से बाहर आना कठिन है. यह एक क्रांति है बहुत सूक्ष्म स्तर पर ही सही. जो लोकतंत्र की अनिवार्य जरुरत है. मीडिया को अधिक वैज्ञानिक नजरिये को अपनाना चाहिए.
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