saabhar- ब्लॉगवाणी
रफिया मंजूरूल अमीन 1930-2008
कल रेडियोनामा पर अन्नपूर्णा जी ने नाट्यतरंग का जिक्र किया और अनायास हमें याद आ गयीं रफिया मंजूरूल अमीन । अंदाज़न साल 1997-98 की बात रही होगी । विविध-भारती पर नाट्यतरंग के अंतर्गत कुछ नये सीरियलों का आगमन हुआ । इनमें से ज्यादातर साहित्यिक-कृतियों पर आधारित थे । तब आलमपनाह का प्रसारण भी हुआ था । बहुत मुमकिन है कि हैदराबाद की किसी ऐजेन्सी ने इसका निर्माण किया हो । इस रेडियो-धारावाहिक की शुरूआत एक व्यक्ति के गाने से होती थी । उनके गाने में शायद बोल नहीं थे । बस एक ही लफ्ज़ था--'हैदराबाद' । जिसे वो अलग-अलग अंदाज़ में गाते थे । 'आलमपनाह' को जिस दकनी हिंदी में पेश किया गया था, वो बेमिसाल था । उन दिनों मैं रेडियोसखी ममता सिंह के साथ फोन-इन कार्यक्रम 'आपके अनुरोध पर' करता था । जिसका उद्देश्य था विविध-भारती से प्रसारित 'स्पोकन वर्ड्स' यानी बोले हुए शब्दों के कार्यक्रमों के अंश श्रोताओं की फरमाईश पर दोबारा प्रसारित करना । यकीन मानिए आलमपनाह की लोकप्रियता का वो आलम था कि लगभग हर सप्ताह हमें आलमपनाह के किसी एपीसोड से एक पूरी घटना निकालकर प्रसारित करनी पड़ती थी । और लोगों का जी उसे सुनते हुए कभी नहीं भरता था ।
'आलमपनाह' के बारे में एक बात आपको और बतानी है । रेडियो पर इस कृति का रूपांतरण जितना लोकप्रिय हुआ उतना ही लोकप्रिय हुआ था इसका टी.वी. रूपांतरण । आपको टी.वी.सीरियल 'फरमान' याद है । दूरदर्शन के ज़माने में राजा बुंदेला अभिनीत इस सीरियल की लोकप्रियता वाक़ई देखने लायक़ थी । आज भी लोग इस धारावाहिक को याद करते हैं । दिलचस्प बात ये है कि ये उन सीरियलों में से था जिसमें आज के सीरियलों की तरह 'मेलोड्रामा' का फूहड़ छौंक नहीं था । इनमें एक ठोस कथा थी और वो आगे भी बढ़ती थी ।
रफिया आपा के बारे में कल खोजबीन कर रहा था कि इस ब्लॉग पर एक ख़बर ऐसी मिली जिससे जी धक रह गया, तीस जून 2008 को रफिया मंजूरूल अमीन का हैदराबाद में देहांत हो गया । वो अठहत्तर साल की थीं । रफिया मंजूरूल अमीन का पहला उपन्यास था 'सारे जहां का दर्द' । जो कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था और इसे लखनऊ के नसीम अनहोन्वी के प्रकाशन ने छापा था । उनका दूसरा उपन्यास था--'ये रास्ते' और इसके बाद आया 'आलमपनाह' । रफिया आपा ने दो सौ से ज्यादा अफ़साने( कहानियां) लिखे हैं । चूंकि वो विज्ञान की छात्रा थीं इसलिए उन्होंने एक विज्ञान-पुस्तक लिखी--'साइंसी ज़ाविये' । जो नागपुर में उर्दू स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल हुई । रफिया आपा सन 1930 में पैदा हुई थीं और उन्होंने तीस जून को अपनी आखिरी सांस ली ।
मुझे याद है कि मुंबई से अपने शहर जबलपुर की यात्रा के दौरान खंडवा स्टेशन के बुक स्टॉल पर 'आलमपनाह' का हिंदी संस्करण दिख गया था । अपने संग्रह से इस पुस्तक को खोजकर निकाला तो पाया कि इस पर मेरे हस्ताक्षर के साथ 19 अप्रैल 1998 की तारीख़ पड़ी है । और स्थान भी खंडवा लिखा है । इसे हिंद पॉकेट बुक्स ने छापा है । अगर ये संस्करण बचा है या अगला संस्करण आया है तो आपको उपलब्ध हो सकता है । ISBN कोड है 81-216-0312-9 ।
रफिया आपा ने सिर्फ लिखा ही नहीं बल्कि चित्र और शिल्पकला में भी वो माहिर थीं ।
रेडियोनामा परिवार रफिया आपा को भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित करता है ।
आलमपनाह के जिस गीत का आप ज़िक्र कर रहे है उसे ख़ान अथर ने गाया। ख़ान अथर हैदराबाद के बहुत अच्छे गायक है ख़ासकर ग़ज़लें बहुत अच्छी गाते है। इस धारावाहिक के संगीत निर्देशन में भी उनका सहयोग रहा।
दूरदर्शन के फ़रमान धारावाहिक की शूटिंग अधिकतर हैदराबाद में हुई निर्देशक शायद लेख टंडन थे। कँवलजीत और विनीता मलिक के साथ हैदराबाद के नामी सितारे इसमें शामिल थे।
रफ़िया आपा और मंज़रूल साहब हैदराबाद की नामी शक्सियतों में से थे और हैदराबाद में आयोजित ख़ास प्रोग्रामों विशेषकर मुशायरों में ख़ासतौर पर नज़र आते थे।