प्रेमचंद को दलित प्रश्न से जोड़कर देखने वाले शायद यह भूल जाते है की जब प्रेमचंद कहानी और उपन्यासों की यथार्थपरक परिभाषा गढ़ रहे थे तो बाकी लोग तिलिस्म और ऐयारी के उपन्यास लिख रहे थे.सीढ़ी एक एक करके ही चढ़ी जाती है और प्रेमचंद ने बहुत सारी सीढिया एक साथ चढ़ी थी. उपन्यासों को तिलिस्म और ऐयारी के खांचे से निकाला, उसे समकालीन जीवन से जोड़ा, समकालीन मुद्दों जैसे आज़ादी का संघर्ष के साथ साथ आने वाले युग की नब्ज़ को पहचानते हुए दलित और स्त्री के प्रश्नों को अपने साहित्य में इस सादगी के साथ उठाया जिसका मुकाबला आज तक कोई लेखक नहीं कर सका है. कम से कम मेरी नज़र में तो ऐसा कोई साहित्यकार या उपन्यासकार नहीं है जिसने ग्रामीण जीवन के ऐसी सीधी और सच्ची अभिव्यक्ति अपने साहित्य में की हो. प्रेमचंद को हिंदी साहित्य के सबसे महान रचनाकार होने का गौरव किसी तूत्पुन्जीये आलोचक ने नहीं आम जनता ने दिया था. हाँ यह कहा जा सकता है उस समय तक ज्यादातर साहित्य पढ़ने वाला मध्यम वर्ग सवर्ण था क्योंकि दलितों के पठन पाठन की प्रक्रिया उन दिनो शुरू ही हुई थी, ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी उनके साहित्य में जिस विद्रोह की झलक मिलती है वही हमारी दलित चेतना के बीज में है. कुछ संकीर्ण दलित लेखक चाहे उनकी इस दलित चेतना पर आक्छेप लगाये पर उन्हें भी यह मानना पड़ेगा की यदि प्रेमचंद ने इसकी शुरुआत न भी की होती तो भी उनका कद कतई कम नहीं आँका जा सकता है. प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को वह स्वर दिया जिसने हिंदी उपन्यास और कहानी की मज़बूत नीव डाली.
Sunday, July 31, 2011
Saturday, July 30, 2011
आज का सच
सबके अपने अपने दुःख है, उसी में गुम सब अपने आप को महान समझते है. कभी ये नहीं सोचते की उन्होंने भी कभी किसी का हक मारा होगा तभी आज कोई और उनका हिस्सा खा गया. लूट तो हर तरफ मची ही है. कहीं आरक्षण के नाम पर लूट तो कही आरक्षण के विरोध में लूट .सवर्ण अपने होनहारों की पीठ तो थपथपाते है पर अवर्णों की पीठ थपथपाना भूल जाते है. ये महान शिक्षक हमारी पीढ़ी का मार्गदर्शन करने वाले द्रोणाचार्य की तरह न अंगूठा काटते है और न उसकी खबर बनने देते है बल्की पूरे के पूरे एकलव्य को गटक जाते है. प्रतिभा के नाम पर इन्हें बस सवर्ण स्टुडेंट दिखाई देता है, बाकी सब इनके लिए नक़ल करने वाले बेवकूफ होते है. अब ऐसे शिक्षकों को आप क्या उपाधि दे सकते है जो सफलता के पैरामीटर भी खुद ही तय करते है और घोड़े पर जीन भी खुद ही कसते है. यह सुखद आश्चर्य ही कहा जा सकता हा ये सारे प्रतिभावान घोड़े सवर्ण होते है. हो सकता है ये बाते जातिवादी लगे पर यही आज का सच है.
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