इस कविता का मूल नाम "कौन पूछेगा" है और इसके रचयिता ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि" है. यह कविता बचपन में मैंने जाने कितने मंचों पर और जाने कितनी बार पढ़ी. यह कविता आज भी अप्रासंगिक नहीं कही जा सकती, क्योंकि आज भी हर कोई अपने आप को सबसे महत्वपूर्ण मानता है और अपने अहंकार में डूबा रहता है, लेकिन इन सारे खासम ख़ास लोंगो का जब हकीकत से पाला पड़ता है तो उन्हें दिखाई देता है की एक आम इंसान भी कैसे सबसे महत्वपूर्ण हो सकता है. हाल फिलहाल में भारत सरकार के कई दिग्गजों की हालत अन्ना जैसे एक आम इंसान के सामने कुछ ऐसी ही हो चली थी. हालांकि इस कविता के बीज में दो मंशाएं साफ़ दीखती है एक तो 'आम' के महत्व के आगे अन्य फलों के स्वाभाविक रंग रूप की हेठी को बड़े ही रोचक रूप में व्यक्त करना और दूसरे महर्षि दयानंद की प्रतिष्टा को स्थापित करना.
सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा!
लगा जब आम डाली पर फटी छाती अनारों की,
लगे बेचारे पछताने कि हमको कौन पूछेगा.
चढ़े आकाश को नारियल जटा धारण किये सर पर,
पड़ा है पेट में पानी कि हमको कौन पूछेगा.
सुनी जब आम कि शोहरत पपीते पड़ गए पीले,
लगा फांसी रहे लटके कि हमको कौन पूछेगा.
रहा इक दाल पर केला सुनी जब आम कि बढ़ती
किया बस बंद निज बढ़ना कि हमको कौन पूछेगा
बिचारे संतरे ने जब सुना यशगान आमों का,
कलेजे के हुए टुकड़े कि हमको कौन पूछेगा.
कि बढ़कर क्या करेंगे हम यही अंगूर ने सोचा,
इसी से रह गया छोटा कि हमको कौन पूछेगा.
सुनी जब आम कि शोहरत तो वह जल भुन गया जामुन,
इसी से हो गया काला कि हमको कौन पूछेगा.
फलों का राजा आम बन गया सब रह गए पीछे,
सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा.
इसी भांति दयानंद की हुई दुनिया में जब शोहरत,
बिधर्मी पड़ गए फीके की हमको कौन पूछेगा.