Friday, August 5, 2011

कामायनी, रीतिकाल और उर्दू शायरी




हिंदी कविता में प्रसाद कि कामायनी का अन्यतम स्थान है.इस महाकाव्य में प्रसाद ने शब्दों कि जो लड़ियाँ पिरोयीं है और जिस कथ्य के साथ उसे निभाया है वह बेहद खूबसूरत है. हालाँकि कामायनी के कथ्य में मुझे सबसे महत्वपूर्ण पात्र श्रद्धा या मनु नहीं लगते. प्रसाद कि इस रचना का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र इड़ा है, जिसे वे बुद्धि का प्रतीक कहते है. श्रद्धा के सारे निर्णय भावुकता से भरे है और मनु का चरित्र ही चरित्रहीन जैसा है. यदि संसार को चलने और इसका नियमन करने कि असली भूमिका कोई निभाता है तो वह इड़ा है. समकालीन अर्थों में आज कि नारी का प्रतीक हैं इड़ा, जो शासन भी करती है और आनेवाले युग के प्रतीक श्रद्धा और मनु के पुत्र को भी सम्हालती है.

इसी तरह रीतिकाल को अक्सर घोर श्रृंगारिकता की उपाधि देकर उस काल की कविताओं को निम्नकोटि में रख दिया जाता है. कविता अपने समकालीन समाज का प्रतीक होती है. आज कोई भरी सभा में वैसी कवितायें सुनाये तो लम्पट कहलायेगा. लेकिन एक वह समय था जब ऐसी कवितायें बाकायदा दरबार में सुनी और सुनाई जाती थी, इस तथ्य की तुलना यदि हम लेओनार्दो द विंची और यूरोप के अन्य महान कलाकारों द्वारा चर्च में बनाये गए चित्रों या भारतीय परिवेश में ही कोणार्क के मंदिरों में बने शिल्पों से करें तो दरबारी या श्रृंगारिक प्रवृत्ति से अलग उस समय के समाज की एक अलग ही तस्वीर उभरती है. हो सकता है वह समाज आज से ज्यादा खुली सोच वाला रहा हो, आज की तरह का दुराव-छिपाव उस समाज में नहीं रहा हो, अन्यथा अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता नहीं मिलती. समाजशास्त्री भी कहते है समाज सरलता से जटिलता की और बढ़ता है और भाषा जटिलता से सरलता की ओर.

अक्सर रीतिकाल को पढ़ाने वाले हमारे शिक्षकों की दृष्टि इतनी संकुचित होती है की वे खुद उस कविता के मर्म को नहीं समझते, उनकी अपनी मानसिक सोच का दायरा संकुचित होता है. आज जब सरकार भी सेक्स एजुकेशन की वकालत कर रही है तब रीतिकाल की श्रृंगारिक कविताओं को पढ़ने में शिक्षकों को शर्म क्यों आती है. यदि इन कवितों को वो प्रासंगिक नहीं समझते तो सिलेबस में बदलाव की कोशिश क्यों नहीं करते.दरसल हिंदी के ज्यादातर शिक्षक रोटी पानी का परमानेंट जुगाड़ होते ही लम्बी तान कर सोने के आदि होते हैं, कभी कुछ नया करने की सोचें भी तो जिस राह से वे आये होते हैं उस राह के मठाधीशों का विरोध करते सहमते हैं.

फैज़ अहमद फैज़ - अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे.......

उर्दू शायरी में रूमानियत (romanticism ) के साथ इन्क्लाबियत का स्वर उसे क्लासिक बना देता है. इन दोनों के मेल से बनी उर्दू शायरी जिस कोमलता (softness) के साथ व्यंग्य (irony) को जन्म देती है वह विधा के रूप में काव्य का सबसे बेहतरीन नमूना है.


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