श्रद्धा , २८ सितम्बर २०१०
अयोध्या की राख से फिर धुँआ उठने को है जो ईमारत ढह चुकी थी नीव फिर खुदने को है
लोग भूल जाते तो बेहतर था उन यादो को
जिनके फैसले लौटा नहीं सकते बुझे हुए चरागों को
हर शहर ने ढ़ोया है बोझ अयोध्या का
बस हो सके तो अब अंत करो इस आतंक का
न बने मंदिर न बने मस्जिद बने तो बस मिसाल बने
फैसला जो भी हो पहले तो हम इंसान बने.
2 comments:
बहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने .......
पढ़िए और मुस्कुराइए :-
जब रोहन पंहुचा संता के घर ...
वाह क्या खूबसूरत सोच है देश और धर्म के बारे में शुभकामनाएं ......................
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