Friday, March 4, 2011

मीडिया और लोकहितः चोली दामन का साथ

saabhar- www.bbc.co.in
सलमा ज़ैदी सलमा ज़ैदी | बुधवार, 21 अक्तूबर 2009, 17:15 IST

हाल ही में एक बहस में हिस्सा लेने का बुलावा आया. विषय था, मीडिया लोकहित के कितना क़रीब है.

चर्चा में गणमान्य पत्रकार भी शामिल थे और पत्रकारिता कॉलेज के छात्र-छात्राएँ भी.

अधितकर लोगों का तर्क था कि मीडिया पूरी तरह अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर रहा है.

मीडिया वह परोस रहा है जो अशोभनीय है, समाज को नुक़सान पहुँचाने वाला है और अश्लीलता के दायरे में आता है.

सवाल यह उठता है कि मीडिया को इसके लिए प्रोत्साहित करने वाला कौन है? आप और हम जैसे दर्शक या पाठक ही न.

मीडिया वह दिखाता है जो लोग देखना चाहतें हैं. लोग वह देखते हैं जो मीडिया दिखाता है.

यानी कैच 22 की स्थिति. चित भी मेरी, पट भी मेरी.

बहस में हिस्सा लेने वाले कुछ लोगों को एतराज़ था टीवी धारावाहिकों पर. यानी सास-बहू सीरियल, रियैलिटी शो आदि.

लेकिन अगर सोचा जाए तो क्या मनोरंजन जीवन का एक अहम हिस्सा नहीं है?

क्या सिर्फ़ राजनीतिक चर्चा और समाज को आईना दिखाने वाले शो दिन भर के थके-हारे, काम के बोझ से छुटकारा पाने के लिए हलके-फुलके कार्यक्रम देखने के इच्छुक दर्शकों के लिए ज़्यादती नहीं हैं?

लेकिन यह भी सच है कि मनोरंजन ही सब कुछ नहीं है. अगर हमें अपने आसपास या दुनिया के अन्य हिस्सों में घटने वाली बातों की जानकारी ही नहीं है या इस सूचना तक पहुँच ही नहीं है तो फिर हम में और कुएँ के मेढक में क्या फ़र्क़ रहा.

मेरे कहने का मतलब यह है कि संतुलन ज़रूरी है. मीडिया अगर इस बात का ध्यान रखे तो बस यह सोने पर सुहागा है.
बहस में हिस्सा लेने आए विद्यार्थियों ने एक स्वर में यही कहा कि मीडिया को करियर के रूप में चुनने का उनका उद्देश्य था सशक्तीकरण.

यानी कल वे चाहें तो समाज का रुख़ बदलने की क्षमता रख सकते हैं. उनके आगे हर वह व्यक्ति जवाबदेह होगा जो जनहित के विपरीत काम कर रहा है.

यह एक अच्छा संकेत है और पत्रकारों की भावी पीढ़ी से कई अपेक्षाएँ जगाता है.

निजी मीडिया पर तरह-तरह के दबाव हैं इसमें कोई शक नहीं.

स्पॉन्सरशिप, विज्ञापन, टीआरपी और सब से बढ़ कर प्रतिस्पर्द्धा. यानी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़.

इस समय ज़रूरत है एक ट्रेंड सेटर की-एक पथ-प्रदर्शक की. एक ऐसा मीडिया चैनेल जो अपने दायित्व को समझे और दर्शकों के हर वर्ग का ध्यान रखे.

अगर इसे आप अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना न कहें, तो मैं बड़ी विनम्रता से कहना चाहूँगी कि बीबीसी ने इस परंपरा का साथ निभाने की पूरी कोशिश की है.

और हमसे कोई चूक होती है तो हमारा कान पकड़ने के लिए आप जैसे जागरूक पाठक तो हैं ही.

टिप्पणियाँटिप्पणी लिखें

  • 1. 18:18 IST, 21 अक्तूबर 2009 AfsarAbbasRizvi "Anjum::

    सबसे पहले तो सलमा ज़ैदी साहिबा आपको मुबारकबाद कि आपने मीडिया से जुड़े मामले को जनता के सामने रखा. अब रही अश्लीलता और फूहड़पन की बात तो इसके लिए हम सभी दर्शक भी ज़िम्मेदार है. हाँ, यह ज़रूर है कि मीडिया को अपना काम बहुत ही सावधानी और पूरी ज़िम्मेदारी के साथ करना चाहिए क्योंकि आज का मीडिया एक बेहतर समाज के निर्माण में बहुत सहायक हो सकता है. इसकी वजह यह है कि हम सभी मीडिया को अपने बहुत क़रीब महसूस करते हैं और सोचते हैं कि मीडिया जो कुछ परोस रहा है वही सच है. लेकिन आजकल पैसे की मारामारी में कुछ एक चैनेल और कुछ एक पत्रकार बंधु इसका ग़लत फ़ायदी भी उठा रहे हैं. उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ पैसे से मतलब है. देखिए, पैसा आज की ज़िंदगी में सभी की पहली ज़रूरत है लेकिन उसके साथ हमें अपनी बुनियादी ज़िम्मेदारियों को नहीं भूलना चाहिए क्योंकि इसी पर आने वाली पीढ़ियों का भविष्य टिका है.

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  • 2. 18:31 IST, 21 अक्तूबर 2009 Mohammad Saleem:

    एक आध को छोड़ कर भारत में कोई भी समाचार चैनेल सम्मानीय नहीं है. यदि बीबीसी भारतीय हितों की कवरेज के लिए एक हिंदी-अंग्रेज़ी टेलीविज़न चैनेल शुरू कर सके तो बहुत अच्छा होगा.

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  • 3. 19:06 IST, 21 अक्तूबर 2009 Dinesh Kumar Kumhar:

    सलमा जी!
    बहुत ही अच्छा लिखा है आपने, ये सही है की आज मीडिया में भी परिवर्तन आया है और दर्शकों में भी, पहले परदे के पीछे की बातें परदे के पीछे ही रखी जाती थी, लेकिन आज वो सब कितना सामने आ गया है ये आप और हम सब जानते हैं. अपनी टी आर पी के चक्कर में टीवी चैनल्स जो हमारे समाज को दिखाते है उसका सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ता है, आज एक बच्चा 10 साल का होते-होते कितनी वो चीजे देख लेता है जो उसे नहीं देखनी चाहिए, और सास-बहू के सीरियल ने समाज में एक तरह का बिखराव, एक-दुसरे के प्रति इर्ष्या, जलन और षड्यंत्र पैदा कर दिए हैं. अखबारों में भी चटपटी न्यूज़ की आड़ में क्या परोसा जाता है ये हम सब जानते हैं. मैं ये कहूँ की सबसे ज्यादा अगर समाज पर असर पड़ा है तो वो है टीवी. मीडिया में भी अब वो निष्पक्षता नहीं रही जो पहले थी, आज आप कोई सा न्यूज़ चैनल देखे उसपर हर टाइम ब्रेकिंग न्यूज़ आती ही रहती है. छोटी सी बात को कितना बड़ा बताकर पेश किया जाता है. मीडिया में भी कुछ लोग ऐसे है जो सिर्फ अपना फायदा देखते हैं. उन्हें समाज की फिकर नहीं है. सब अपनी रोटियां सेंकने में लगे हैं. सिर्फ बहसें होती है और उनका परिणाम शुन्य होता है. मीडिया को सबसे पहले अपना मुनाफा नहीं देखकर समाज और लोगों के बारे में सोचना चाहिए. मैं ये नहीं कहता की मीडिया ने समाज को नई दिशा नहीं दी, मीडिया ने समाज को जो दिशा दी है उसके लिए हम उसके आभारी हैं, पर आज कहीं न कहीं मीडिया के आदर्श धूमिल हो गए हैं. उसे अपना दायित्व समझना चाहिए.

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  • 4. 19:13 IST, 21 अक्तूबर 2009 Pankaj Parashar:

    आपकी बातों से पूरी तरह सहमत हो पाना कठिन है कि बीबीसी ने इस परंपरा का पालन किया है. बीबीसी की तटस्थता और निष्पक्षता असंदिग्ध है? ब्रिटेन में कोई संदिग्ध भी पकड़ा जाए तो बीबीसी के लिए वह आतंकवादी होता है, पर भारत में कोई आतंकवादी हमला होता है तो उसे चरमपंथी हमला कहा जाता है. उदाहरण बहुतेरे हैं. फेहरिस्त लंबी हो जाएगी.

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  • 5. 21:56 IST, 21 अक्तूबर 2009 SHABBIR KHANNA,RIYADH,SAUDIA ARABIA:

    बहुत अच्छा लिखा है आपने सलमा जी लेकिन यह बीबीसी को भी समझना चाहिए कि उसने भी वक़्त के साथ बदलाव किया है.

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  • 6. 05:00 IST, 22 अक्तूबर 2009 Hemant Mistry:

    मेरा विचार है कि भारत के सब रिपोर्टरों को दिन में कम से कम एक घंटे बीबीसी और सीएनएन देखना चाहिए ताकि उन्हें पता चले कि गुणवत्ता क्या होती है. मेरा मतलब है दिल्ली या बंबई में ( अब बालासाहेब जो चाहे कहें, मैं तो बंबई या बॉम्बे ही कहूँगा), तो इन शहरों में जिस तरह की रिपोर्टिंग होती है, उस पर हंसी ही आती है. यह लोग यह नहीं सोचते कि भारत अब तीसरी दुनिया का देश नहीं रहा है. हालाँकि मीडिया ने इसे पाँचवीं दुनिया का देश बना दिया है. क्योंकि मैं स्पेनी भाषा बोल सकता हूँ और मेक्सिकन न्यूज़ देखता हूँ तो मुझे यह पता है कि वह भारत से कहीं बेहतर हैं.

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  • 7. 08:59 IST, 22 अक्तूबर 2009 AMIT KUMAR JHA:

    इस बात पर कोई दो राय नहीं हो सकती की मीडिया वो दिखाता है जो लोग देखना चाहते हैं लेकिन इससे भी बड़ी और महतवपूर्ण बात है कि लोग वो देखते हैं जो मीडिया दिखाता है.

    आज मीडिया की पँहुच सर्वत्र है और जनमानस को प्रभावित करने की उसकी क्षमता भी काफी बढ़ गई है. ऐसे में मीडिया को काफी सतर्क रहकर पूरी ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका का निर्वाह करने की जरुरत है. सिर्फ टीआरपी बढ़ाने की चिंता, राई का पहाड़ बनाने की कोशिश और हलके-फुल्के मनोरंजन के नाम पर सस्ता और फूहड़ सा कुछ भी परोसने की कवायद से परे हटकर मीडिया को अपना रोल दायित्व के साथ निभाने की जरुरत है.

    जहा तक बीबीसी हिंदी का सवाल है, तो मेरा मानना है कि एक निष्पक्ष और विश्वसनीय समाचार चैनल के रूप में इसका सानी नहीं है.

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  • 8. 12:28 IST, 22 अक्तूबर 2009 GAUTAM SACHDEV:

    सलमा जी
    सबसे पहले आपको बधाई की आपने " मीडिया और लोकहित" जैसे मुद्दों पर आपने लिखा और हम जैसे आम आदमी को जागरूक किया, मीडिया के एक छात्र होने के नाते मैं भी प्रबुद्ध पत्रकारों और देश के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले इस भाग से रूबरू होते रहता हूँ. उन्हें सुनकर और करीब से जानकार एक सवाल आज भी मेरे मन में कौंधता है कि वो पहला व्यक्ति कौन होगा जो शुरुआत करेगा. इस बासठ साल में हम इतने बदल गए लेकिन वैश्वीकरण और " टीआरपी" की होड़ में मीडिया जगत पर उठती उंगलिया मानो थमने का नाम ही नहीं ले रही हैं.
    क्या सुधार की कोई गुंजाइश है...तो ऐसा कब हो पायेगा. अगर हां तो शायद पत्रकारिता का विश्वास लोगों के बीच और भी मजबूत हो पाएगा जैसा आपके बीबीसी ने किया है, जिससे हम जैसे नवोदित को आये दिन उस हाथ की उठती एक उंगलियों का सामना नहीं करना पड़ेगा जिसकी तीन उँगलियाँ खुद उठने वाले हाथ की तरफ होती हैं.

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  • 9. 14:20 IST, 22 अक्तूबर 2009 Amit N Sharma:

    सलमा जैदी साहिबा. बहुत शुक्रिया जो आपने ये मुद्दा उठा डाला. यकीनन आपकी बात में सच्चाई है पर क्या ये भी सच नहीं की बीबीसी भी अब उसी रंग में रंगती जा रही है. वरना जब भी बीबीसी पर आता था तो देश विदेश की मुख्य खबरें विस्तार से मिलती थी. पर अब बीबीसी हिंदी डॉट कॉम का वही हाल है. तो फिर दूसरो की खामी निकालने का हक आपके पास है ही नहीं इसपर सवाल उठते है!

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  • 10. 16:41 IST, 22 अक्तूबर 2009 swatantra sharma, ajmer rajasthan:

    मैं समझता हूँ सलमा जी की बात सही है. आज़ादी से पहले मीडिया की भूमिका लोकसंदेशवाहक की होती थी. लेकिन अब वह पैसा कमाने की मशीन बन कर रह गया है. यह दुर्भाग्य की बात है कि मीडिया की समाज के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है. लोकतंत्र में जब सभी स्तंभ कमज़ोर हैं तो लोकतंत्र की ज़रूरत ही क्या है. मेरी राय है कि संपूर्ण व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए और इसमें मीडिया एक अहम भूमिका अदा कर सकता है.

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  • 11. 17:34 IST, 22 अक्तूबर 2009 Indrajeet Jha:

    सलमा जी!
    बिलकुल सही मुद्दा उठाया है आपने. लेकिन ये बात पूरी तरह से सच नहीं है कि लोग जो देखना चाहते हैं मीडिया वही दिखाता है. समाचार चैनलों पर जिस तरह से टीआरपी के लिए कभी नाग और नागिन के नृत्यों को तो कभी किसी बाबा के चमत्कार को दिखाया जाता है और वो भी पूरे फ़िल्मी अंदाज़ में. समाजिक सरोकारों से सम्बंधित मुद्दे तो गायब ही रहते हैं, और दिखाया भी जाता है तो गहराई में जाकर चर्चा नहीं के बराबर ही होती है. मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए. हमें गर्व है कि कम से कम बीबीसी इन सब से अलग है.

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  • 12. 23:35 IST, 22 अक्तूबर 2009 Akhil:

    सलमा जी, इससे पहले कि मैं कोई टिप्पणी करूँ, अपने बारे में कुछ बताना चाहता हूँ. मैं अमरीका में रह रहा भारतीय नागरिक हूँ. पिछले आठ साल से बीबीसी हिंदी का पाठक हू. मैं बीबीसी अंग्रेज़ी साउथ एशिया पेज और बीबीसी हिंदी का पन्ना लगभग रोज़ ही देखता हूँ. यह सब आपको यह बताने के लिए कहा कि मैं साइट की शुरुआत से ही इससे जुड़ा हूँ और मैंने इसे आगे बढ़ते देखा है. मै अन्य समाचार चैनेलों की पत्रकारिता के स्तर पर टिप्पणी नहीं करना चाहता. उसके बारे में लोग पहले ही कह चुके हैं. लेकिन बीबीसी हिंदी के बारे में आपके कथन से मैं सहमत नहीं हूँ. मुझे लगता है कि बीबीसी हिंदी को अभी और प्रगति करने की ज़रूरत है. आपको अंग्रेज़ी साइट के बराबर पहुँचने के लिए अभी बहुत कुछ करना होगा.

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  • 13. 21:03 IST, 23 अक्तूबर 2009 kavindra tewari:

    महोदया, आपका विचार पढ़ कर अच्छा लगा. एक बात समझ में नहीं आती कि मीडिया कैसे कहती है कि हम वहीं दिखाते हैं जो दर्शक देखना चाहती है. क्या कभी ऐसा सर्वेक्षण हुआ है. मुझे लगता है कि जब मौलिकता की कमी हो जाती है तो बेकार के कार्यक्रमों को दर्शकों के सामने परोसा जाता है.

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  • 14. 23:24 IST, 25 अक्तूबर 2009 haarriss:

    सलमा जी की बात में कोई तर्क नहीं है. ये सिर्फ अपनी बिरादरी को बचाने की कोशिश है. हर बात को यह कह कर कि दर्शक ऐसा चाहते हैं जस्टिफ़ाई नहीं किया जा सकता. इस बात को जानने के क्या आधार हैं? मीडिया के मालिक वास्तव में अपना एजेंडा लागू करते हैं, दर्शकों के कंधे पर अपनी बंदूक रख कर. किसी को पैसा चाहिए, कोई अपनी सरकार को खुश रखना चाहता है, बदनाम बेचारा दर्शक होता है. दर्शक तो धर्म की खबरें बड़े चाव से देखती-सुनती है, क्यों नहीं बीबीसी उसे प्रसारित करता है?

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  • 15. 16:11 IST, 27 अक्तूबर 2009 अमित रंजन :

    पैसा बोलता है -यही फलसफा हो गया है दुनिया का. और इसकी जुगाड़ करना कोई मीडिया से सीखे. मगर हर कोई अपने को पाक साफ दिखाने में लगा है. किस-किस का नाम लूँ. मीडिया और समाज का सम्बन्ध पारस्परिक है- दोनों एक दूसरे को सजा-बजा रहे है. लेकिन सूचनाओं की इस चमकती-दमकती ऑर्केस्ट्रा में इंसानियत और हितकर सच्चाई कहीं खो गई है. काश हम इसे बचा पाते तो बहुत कुछ बच जाता जो हम गंवा रहे हैं. अब विश्वास का आलम ना रहा और मगर श्रोताओं या दर्शकों या पाठकों के लिए एक अच्छी चीज निकल कर सामने आयी है कि वे अपने विवेक से काम लेने के लिए मजबूर हो गये हैं. वरना सूचनाओं के गोलमाल से बाहर आना कठिन है. यह एक क्रांति है बहुत सूक्ष्म स्तर पर ही सही. जो लोकतंत्र की अनिवार्य जरुरत है. मीडिया को अधिक वैज्ञानिक नजरिये को अपनाना चाहिए.

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