Tuesday, December 6, 2011

कोलावेरी डी और लोक


आज कोलावेरी डी गीत पहली बार सुना, और वाकई में यह गीत कुछ हट के लगा. इसकी गौर करने लायक तीन चार विशेषताएं है पहली की इसका गायक spontaneously एक गीत शुरू करता है जो पहले से कहीं न तो लिखा हुआ है और न किसी का चुराया हुआ है. जिसमे केवल कुछ शब्द है जिनके अलग अलग होने पर अपने अलग अर्थ हो सकते हैं पर यहाँ पर शब्द के बाद शब्द जिस क्रम में आते है उसमे कनेक्टिविटी अपने आप आती चली जाती है और बहुत कम शब्दों में भी गीत अपने पूरे भाव के साथ श्रोता को प्रभावित करता जाता है. इस गीत में स्क्रिप्ट का अभाव, spontanity, मस्ती और सामूहिकता कुछ हद तक इसमें लोकगीतों सा प्रभाव उत्पन्न करती है. साथ ही साथ शादी के बैंड की तरह की धुन और १ २ ३ ४... का इस्तेमाल भी इस गीत को लोक के नज़दीक ले जाता है. शब्द चाहे अंग्रेजी के हों किन्तु इस गीत में हिंदी लोक की सुगंधी बराबर झलकती है.

Sunday, October 2, 2011

बापू तेरा राम राज्य गुमनाम कर दिया लोगों ने






यह कविता ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि" के भोजपुरी तथा हिंदी गीतों के संग्रह "इन्द्र गीतायन" (१९८७ में प्रकाशित) में संकलित है और कई अर्थों में आज के सन्दर्भों में भी प्रासंगिक बनी हुई है.

बापू तेरा राम राज्य गुमनाम कर दिया लोगों ने,
राजघाट के वादों को बदनाम कर दिया लोगों ने,
सत्ता के सौदागर बापू नित नाम तुम्हारा लेते है,
बापू तेरा नाम बेच ये सिंघासन पर सोते हैं,
व्यर्थ बन गई सत्य अहिंसा भूल चुके हैं नैतिकता,
बचन कर्म में मेल नहीं नित बीज द्वेष का बोते हैं,
देश प्रेम को ताख पे रख कुहराम कर दिया लोगों ने,
अत्याचार हरिजनों पर भी आज निरंतर होते हैं,
अगड़ित घर और अगड़ित जीवन दंगों में स्वाहा होते हैं,
जाति युद्ध भड़काए जाते वोट प्राप्ति की आशा में,
तीस कोटि जन आधा खाते दवा को रोगी रोते हैं,
राजनीति खटमली स्वार्थ सरनाम कर दिया लोगों ने,
शोषण भ्रस्टाचार भतीजावाद लूट का दौर गरम,
बापू इस आजाद देश में बची नहीं है कहीं शरम,
अगर यही रफ़्तार रही फिर भला देश का राम करे,
लेना होगा जन्म कृष्ण को या दिव्य मूर्ति गौतम,
लोकतंत्र का यह कैसा अंजाम कर दिया लोगों ने.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

Saturday, September 24, 2011

अभिलाषाएं-६


उपवन

चलें वहीँ पर घुमने देश प्रेम में झुमने,
श्रद्धा से जिस धुल को आते हों सब चूमने,
जहाँ गा रही हों समाधियाँ बलिदानों के गीत को,
वहीँ हमारे फूल चढ़ाना उपवन कहे बहार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं-५


नाव

छिड़ा जहाँ संग्राम हो और आराम हराम हो,
घायल सेना के लिए जहाँ न कुछ बिश्राम है,
गरम खून की धार नदी बन कर उफनाती हो जहाँ,
उस सरिता में मुझे बहाना नाव कहे पतवार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं-४


चमड़ा

जहाँ बर्फ की हो गलन ठंडा ठंडा हो पवन,
ठिठरन से हों कांपते जहाँ सैनिकों के बदन,
उस पथ पर चलने वालों को अर्पित हो यह मेरा तन,
मेरी खाल के वस्त्र बनाना चमड़ा कहे चमार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं- ३


सोना

मै न तिजोरी में रहूँ छांह न धरती की गहुँ,
खोटे खरे स्वाभाव की बात कसौटी से कहूँ,
आये समय कभी संकट का देश पे मुझको वार दे,
ऐसा जेवर मुझे बनाना सोना कहे सोनार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

अभिलाषाएं- २


लोहा

रक्त रंजित तलवार हो या विष बुझी कटार हो,
दुश्मन के ही खून से इस तन का श्रृंगार हो,
पानी वाले पानी मांगे मेरी पैनी धार से,
ऐसा पानीदार बनाना लोहा कहे लोहार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

Wednesday, September 21, 2011

अभिलाषाएं- १



मिट्टी
तन झुलसे अंगार से सुख न शलभ के प्यार से,
अंतिम सांसों तक लड़े चाहे ज्योति बयार से,
स्नेह सुधा पी बसुधा की आरती उतारूँ मै सदा,
ऐसा दीपक मुझे बनाना मिट्टी कहे कुम्हार से.

साभार- ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि"

Friday, September 2, 2011

सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा!


इस कविता का मूल नाम "कौन पूछेगा" है और इसके रचयिता ठाकुर इन्द्रदेव सिंह " इन्द्र कवि" है. यह कविता बचपन में मैंने जाने कितने मंचों पर और जाने कितनी बार पढ़ी. यह कविता आज भी अप्रासंगिक नहीं कही जा सकती, क्योंकि आज भी हर कोई अपने आप को सबसे महत्वपूर्ण मानता है और अपने अहंकार में डूबा रहता है, लेकिन इन सारे खासम ख़ास लोंगो का जब हकीकत से पाला पड़ता है तो उन्हें दिखाई देता है की एक आम इंसान भी कैसे सबसे महत्वपूर्ण हो सकता है. हाल फिलहाल में भारत सरकार के कई दिग्गजों की हालत अन्ना जैसे एक आम इंसान के सामने कुछ ऐसी ही हो चली थी. हालांकि इस कविता के बीज में दो मंशाएं साफ़ दीखती है एक तो 'आम' के महत्व के आगे अन्य फलों के स्वाभाविक रंग रूप की हेठी को बड़े ही रोचक रूप में व्यक्त करना और दूसरे महर्षि दयानंद की प्रतिष्टा को स्थापित करना.

सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा!

लगा जब आम डाली पर फटी छाती अनारों की,
लगे बेचारे पछताने कि हमको कौन पूछेगा.

चढ़े आकाश को नारियल जटा धारण किये सर पर,
पड़ा है पेट में पानी कि हमको कौन पूछेगा.

सुनी जब आम कि शोहरत पपीते पड़ गए पीले,
लगा फांसी रहे लटके कि हमको कौन पूछेगा.

रहा इक दाल पर केला सुनी जब आम कि बढ़ती
किया बस बंद निज बढ़ना कि हमको कौन पूछेगा

बिचारे संतरे ने जब सुना यशगान आमों का,
कलेजे के हुए टुकड़े कि हमको कौन पूछेगा.

कि बढ़कर क्या करेंगे हम यही अंगूर ने सोचा,
इसी से रह गया छोटा कि हमको कौन पूछेगा.

सुनी जब आम कि शोहरत तो वह जल भुन गया जामुन,
इसी से हो गया काला कि हमको कौन पूछेगा.

फलों का राजा आम बन गया सब रह गए पीछे,
सभी को सोच है भारी कि हमको कौन पूछेगा.

इसी भांति दयानंद की हुई दुनिया में जब शोहरत,
बिधर्मी पड़ गए फीके की हमको कौन पूछेगा.

Saturday, August 27, 2011

जान बची और लाखों पाए, लौट के बुद्धू घर को आये ... ... ...



शुक्र है की भारत सरकार ने देर आये दुरुस्त आये के मुहावरे को सच कर दिखाते हुए, संविधान की गरिमा को सर्वोपरि बताया और अन्ना के अनशन की गैर जरुरी धमकियों से ऊपर उठने का साहस दिखाया. अगर आज अन्ना की जिद मान ली जाये तो कल ऐसे लाखों आन्दोलन खड़े हो जायेंगे जो समुदाय विशेष या मांग विशेष या मुद्दा विशेष को आधार बना कर संख्याबल दिखाते हुए अनशन करेंगे. इनमे से जिन समुदायों की मीडिया पर पकड़ होगी वो टेलीविजन पर दिन रात अपना भोपू बजाते हुए नित नई क्रांतियाँ करते रहेंगे और अपनी जायज नाजायज मांगों के लिए यूँ ही जिद करेंगे. माना की सरकार के ज़्यादातर नेता भ्रस्टाचार में लिप्त है और उनके चेहरे ही सामने नहीं आने चाहिए बल्कि उनके संपत्ति भी जब्त की जानी चाहिए. पर इसके लिए जनलोकपाल के तहत एक पूरा अलग और नया भ्रष्टाचार तंत्र खड़ा कर देना कहा तक न्याय संगत है. इसकी क्या गारंटी है की सिविल सोसायटी के लोग जो इस जनलोकपाल की वकालत कर रहे है उनका ईमान कभी ख़राब नहीं होगा. आज ही आपस में चर्चा करते हुए कुछ वकीलों ने कहा इस जनलोकपाल के आ जाने से कुछ और नहीं होगा बस 'रेट' बढ़ जायेंगे. याने की घूस ज़्यादा देनी पड़ेगी क्योंकि पकडे जाने का जोखिम भी बड़ा है और सजा भी बड़ी. तो हमें समझना होगा की इस देश के चरित्र में भ्रस्टाचार पूरी तरह रच बस चुका है. इसके लिए कुछ नए इलाज ढूडने पड़ेंगे क्योंकि यह बिमारी हद से ज्यादा बढ़ चुकी है. अब अन्ना टीम ही जनलोकपाल को सरकार से जिन शर्तों के साथ मनवाने पर अड़ी हुई है वह उसकी हठधर्मिता को दर्शाता है, और कई बार शक पैदा होता है इसमें जरूर इन लोगों का कोई निजी स्वार्थ होगा. अन्यथा ये अन्ना को समझाते की इतनी बार देखा एक बार और सही, सरकार को एक मौका और देते है . पर तब ऐसा नहीं हुआ धीरे धीरे लोगों को भी जनलोकपाल के इस किस्से से उब होने लग गई. जैसे कि अन्ना को गिरफ्तार करने की गलती सरकार ने की थी ठीक वैसी ही गलतियाँ अति उत्साह में अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी ने शुरू कर दी एक ने अपने आप को सर्वेसर्वा समझते हुए सरकार को अपने इशारे पर चलने की हिदायत दी और दूसरी ने तरह तरह के स्वांग रचा कर नेताओ की नौटंकी की, बची खुची क़सर ओमपुरी जी ने पूरी कर दी. खैर इस आन्दोलन में जो भंडारे लगे उसका पैसा कहाँ से आया, जो झंडे और बैनर आये उसका पैसा कहाँ से आया इसका जवाब फुर्सत से सरकार अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी से अब निकलवा ही लेगी. शायद इसीलिए दोनों के चेहरे आज जीत कि जश्न के साथ चमक नहीं रहे थे बल्कि लटके हुए थे. क्योंकि इस जीत का सच वे अच्छी तरह से जानते थे. अन्ना के कंधे पर रखकर जो बन्दुक उन्होंने सरकार पर तानी थी उसका निशाना पूरी तरह चूक गया. दरसल कांग्रेस और बी जे पी इस कदर मिल जाएँगी इसकी उम्मीद इस कार्पोरेट प्लस एन जी ओ समर्थित आन्दोलन को नहीं था. अब सरकार जो बिल बनाएगी वो सरकार पर कितना नकेल कसेगा उसके बारे में कुछ कहना तो मुश्किल है पर आज कि चर्चा से यह बात तो स्पष्ट हो गई कि अब कार्पोरेट हाउसों, एन जी ओ और मीडिया चैनलों तुम्हारी खैर नहीं. खैर ख़ुशी इस बात कि है कि अन्ना जी आपकी जान बची सरकार ने लाखों पाए और लौट के बुद्धू याने कि जनता घर को आये............

Sunday, August 21, 2011

मीडिया और आन्दोलन


पता नहीं यह कैसा आन्दोलन है? ऐसा लग रहा है की देश की और समस्याएँ कहीं विलुप्त हो गयी है. अब बस अन्ना के इस आन्दोलन के सिवा देश में कुछ घट ही नहीं रहा. क्या सचमुच ऐसा ही है? सोचिये, अगर अन्ना का यह आन्दोलन मीडिया को ना मिला होता तो वह अभी क्या कर रहा होता. समाचार चैनलों पर डूबते सेंसेक्स और चढ़ते सोने का भाव सुर्खियाँ बटोर रहे होते. टी.वी. के सारे कलाकार जन्माष्टमी का त्यौहार बड़ी धूम धाम से मना रहे होते. या फिर महाराष्ट्र की दही हांडी मे कौन सी जगह पर मटका कितनी उचाईं पर लटकाया गया है और कहाँ पर कितना ईनाम है ख़बरों का मुख्य विषय यही होता. पर आजकल समाचारों का रिकॉर्ड केवल अन्ना की धुन सुना रहा है. कम से कम समाचारों में देश की सारी समस्याएँ ख़त्म हो गयी है न कहीं चोरी हो रही है न डकैती, न कहीं मर्डर हो रहा है न बलात्कार. समाचार बटोरने वालों की तरह कहीं ये सारे अपराधी एक ही जगह इकठ्ठा तो नहीं हो गए है?

Wednesday, August 17, 2011

अन्ना, भ्रस्टाचार और हम


आँख मीच कर अन्ना का समर्थन करने वालों की एक लम्बी फौज खड़ी हो गयी है.उनमे से कितनों को तो मालूम भी नहीं की अन्ना जिस लोकपाल बिल की बात कर रहे है वह आखिर है क्या? उस लोकपाल बिल में क्या पूरे समाज में फैले करप्शन की बात की जा रही है? अगर आप को थोड़ी भी जानकारी हो तो यह बिल केवल हमारी सरकार में बैठे ३-४ प्रतिशत अधिकारियों और कर्मचारियों पर शिकंजा कसता है. अन्ना के समर्थन में जुटे हजारों लोगों ने क्या अपने आप से कभी पूछा है की उन्होंने अपने जीवन में कितने भ्रष्ट काम किये है? जो लोग आज सड़कों पर अन्ना के समर्थन में उतरे है, और अपना अपना काम छोड़ के उतरे है क्या अपने काम को छोड़ कर हंगामा काटना भ्रस्टाचार नहीं है? भ्रस्टाचार के अनेक रूप है और वो हम सब के भीतर है. आर्थिक भ्रस्टाचार के अतिरिक्त सामाजिक भ्रस्टाचार भी बड़ी समस्या है, हम उसे क्यों भूल जाते है.अगर आप भ्रस्टाचार ख़त्म करना चाहते है तो पहले खुद के भीतर झांकिए. जिन शार्टकट्स का इस्तेमाल कर हम आगे बढ़ने की ख्वाहिश रखते है क्या यह ख्वाहिश इस भ्रष्ट तंत्र को और मज़बूत नहीं करती. जहाँ तक अन्ना का सवाल है, अन्ना ने अपने जीवन में काफी कुछ अच्छे काम किये है, लेकिन इसके पीछे निस्वार्थ भावना के बीच कहीं न कहीं लोकप्रियता का मज़बूत तंतु उन्हें बांधे हुए है.

Monday, August 15, 2011

अन्ना, अनशन और इजाजत


आप जिसका विरोध करना चाहते है क्या उसीसे इजाजत लेते है? क्या उससे उम्मीद करते है की वो आपको इजाजत देंगे? अगर आप अनशन करना चाहते है तो ये आपका हक है, भीड़ जुटाना या ताकत दिखाना मकसद नहीं होना चाहिए, वो तो खुद ब खुद दिखेगी अगर आप एक जिन्दा कौम के नागरिक है तो. फूलप्रूफ सुरक्षा के बीच अन्ना के अनशन का साथ देने वाला निश्चित तौर पर भ्रष्ट होगा. जो वाकई में भ्रस्टाचार का शिकार होगा या उससे मुक्ति चाहता होगा, वो बावजूद धारा- १४४ के वहां पहुंचेगा. शामियाने बिछाकर अगर अनशन किये जाते तो आज तक देश आज़ाद नहीं होता.
अन्ना यह अच्छी तरह से जानते है, की वह चाहे तो किसी उजाड़ खेत में भी अनशन कर सकते है. जब वे जंतर मंतर पर बैठे थे तब भी कोई बहुत बड़ी भीड़ उनके साथ नहीं थी पर 'लोग जुड़ते गए और काफिला बढ़ता गया' की तर्ज पर उनका अनशन मीडिया की सुर्ख़ियों में आ गया. अन्ना आज राजघाट पर बैठे तब भी लोगों का बड़ा हुजूम चंद घंटों में उनके साथ आ बैठा. अगर अब भी इस तानाशाह सरकार की नींद नहीं खुलती, तो उसकी बेफिक्री के आलम को क्या नाम दिया जा सकता है.
खैर गोरे तो दूसरे देश से आये थे, इस देश को लूटना और यहाँ के लोगों पर अत्याचार करना ही उनका उद्देश्य था, कम से कम वे गोरे अपने देश के प्रति निष्ठावान थे. पर ये गुलाम मानसिकता के राजनेता और अधिकारी किसके गुलाम हैं? जो रैलियों के लिए लोगों को ट्रकों में भर कर लाते है, तब क्या ट्रैफिक व्यवस्था में बाधा नहीं खड़ी होती, लोगों की जान को खतरा नहीं होता? कैसे रामलीला मैदान इन्हें आसानी से मिल जाता है. अन्ना के पीछे खड़े लोग चाहे जिस जाति या वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हो, यह वक्त सबको अलग अलग करके देखने का नहीं बल्कि यह सोचने का है की यदि आप सरकार की किसी नीति से मतभेद रखते है और उसके खिलाफ व्यापक आन्दोलन खड़ा करना चाहते है, तो इसके लिए कहाँ अर्जी देनी पड़ेगी और अनुमति न मिलने की सूरत में कहाँ सुनवाई होगी.सरकार कहती है, ऐसे में आप कोर्ट जाइए. जहाँ पहले से ही अनगिनत केस पेंडिंग पड़े है. यानी की पूरी उम्र केस के फैसले का इंतजार करते रहिये ताकि वे चैन की नींद सो सकें.

Sunday, August 14, 2011

सरकार के मसखरे


आजकल सरकार में बहुत से मसखरे आ गए है, मुद्दा चाहे कितना भी गंभीर हो ये अपने मसखरेपन से उससे निपट ही लेते है. टेलीविजन पर चमकने वाले ये चमकदार चेहरे कांग्रेस के पसंदीदा नुमाईंदे है. हालाँकि ये नुमाइंदे कांग्रेस की लुटिया डूबायेंगे या पार लगायेंगे ये तो जब चुनाव होंगे तभी पता लगेगा. फिलहाल अन्ना के खिलाफ अंट शंट बोल रहे इन नेताओं की अक्ल पर यह सोच के तरस आता है के कल कहीं अन्ना की लड़ाई में पूरा देश शामिल हो गया तो ये कहा जायेंगे. खैर तब तक तो ये मलाई के मंत्रालयों में अपने हिस्से की मलाई काट ही रहे है, फिर कांग्रेस कहीं जाये और देश कहीं इन्हें भला इसकी चिंता क्यों सताने लगी.
खैर जिस बेशर्मी के साथ ये मसखरे एक बूढ़े आन्दोलनकारी पर हँसते है मीडिया के सामने उनका मजाक बनाने की कोशिश करते है वह किसी सभ्य देश के आम नागरिक का काम तो कम से कम नहीं कहा जा सकता. किसी भी आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए एक ही तरह की चाल बार बार चल रही कांग्रेस सरकार जिस दमनकारी नीति का पालन कर रही है, और आन्दोलन खड़े करने वालों पर जिस तरह के आरोप मढ़ रही है वह उसके मसखरों की कुटिलता का ही एक छोटा सा नमूना है.

Friday, August 12, 2011

'विकृत संस्कृति'


लन्दन में हो रही हिंसा को प्रधानमंत्री डेविड कैमरन 'विकृत संस्कृति' का परिणाम मानते है. और वे मानते हैं की उनके देश में एक पूरी की पूरी पीढ़ी सही और गलत क्या है यह जाने बिना ही बड़ी हो रही है. दंगों के इतिहास में यह पहली बार हुआ है, जब दंगों में शामिल है, छोटे छोटे बच्चे यहाँ तक की छोटी छोटी लड़कियां भी. बचपन क्यूँ और कहाँ खोता जा रहा है इस सवाल का जवाब लन्दन की इस घटना से समझा जा सकता है. उपभोक्तावादी संस्कृति के सबसे गंभीर परिणाम सबसे अपरिपक्व पीढ़ी को सबसे पहले झेलनी पड़ती है. अपरिपक्व मन ही यह तय नहीं कर पाता की क्या सही है क्या गलत. यह दिग्भ्रमित पीढ़ी हमारा भविष्य है यह सोच कर ही आने वाले समय की रोंगटे खड़ी करने वाली तस्वीर सामने आ जाती है.
पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव हमारे देश पर बहुत तेजी से पड़ता है. आधुनिक संस्कृति का यह विकृत रूप हमारे देश में आज नहीं तो कल अपना असर जरूर दिखायेगा. हमारे देश में ऐसी बहुत सी स्वतः प्रेरित संस्थाएं हैं, जो समाज को अनुशाषित रखने का कार्य करती है. कम से कम लोक का मानस इस तरह का है जिसमे इस तरह की प्रवृत्ति को नकारा जाता है. समाज की यही प्रवृत्ति परिवार और अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति पर अपना कड़ा अनुशाशन बनाये रखती है. अगर ब्रिटेन ने इस मामले में कड़ाई बरती तो बेहतर होगा, लेकिन समाज को अनुशाषित करना जरुरी है, और यह अनुशाशन समाज के भीतर से उभरना चाहिए यह ब्रिटेन को समझना होगा.

Thursday, August 11, 2011

हंगामा है क्यों बरपा


अगर प्रकाश झा की 'आरक्षण' फिल्म से आप सहमत नहीं, तो जरूरी नहीं की दूसरा भी असहमति जताए. लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी आपको मिली है तो प्रकाश झा को भी मिली है, यदि आप विरोध ही जताना चाहते है तो आरक्षण पर उनसे बेहतर फिल्म बना कर दिखाईये. और ये बिलकुल मुमकीन है, क्योंकि 'राजनीति' नाम की जो फिल्म उन्होंने बनाई उसमे 'राजनीति' का कोई सबक नहीं था वो एक मसाला फिल्म बनाने की कोशिश थी, और उसपर यथार्थ का जो पर्दा डाला गया था उसकी वज़ह से वह बड़ी अटपटी फिल्म बन कर रह गयी. प्रकाश झा अपनी फिल्म में खुलकर आरक्षण का विरोध करेंगे तो बेहतर होगा, कम से कम उनका असली चेहरा और सोच आपके सामने होगी, और उसका छुपा हुआ विरोध करते है तो भी ठीक है, पर यह जानने के लिए की वो क्या कहना चाहते है फिल्म तो देखने के बाद ही निर्णय लेना ठीक होगा. जिस तरह गुजरात में गुजरात के दंगो से सम्बंधित फिल्मो की रिलीज रोकी जाती थी, उसे सवैधानिक नहीं कहा जा सकता 'परजानियाँ' के साथ यही किया गया था. प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की जेब में एक पैसा नहीं जाना चाहिए, ऐसा सोचना गलत नहीं, प्रकाश झा अक्सर अपनी फिल्मो का नाम ऐसा रखते है जो विवादस्पद हो, जिसके कारण उनकी फिल्म रिलीज होने से पहले ही चर्चित हो जाती है. एक आम दर्शक को उसे देखकर अक्सर निराशा ही हाथ लगती है. 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' उनकी ज्यादातर फिल्मो का हश्र यही होता है. बड़े मुद्दों पर एकपक्षीय दृष्टि और घटिया ट्रीटमेंट उनकी फिल्मो की ख़ास विशेषता है. जरुरी है की लोगों को ऐसे चालक फिल्मकारों की चालाकी से बचाया जाये जिनका सरोकार कोई मुद्दा नहीं बस मुद्दों के नाम पर लोगों की भावनाओ को भड़काकर अपनी जेबें भरना है. ऐसे फिल्मकारों को बेहतर जवाब आम जनता ही दे सकती है, अगर हम इस फिल्म की रिलीज का विरोध करेंगे तो लोगों में इस फिल्म के प्रति उत्सुकता और बढ़ेगी. अप्रत्यक्ष रूप से यह इस फिल्म का प्रचार ही होगा, और इसका फायदा होगा जनाब प्रकाश झा जी को.

Wednesday, August 10, 2011

जनता के सरोकार और 'सिविल सोसायटी'


अन्ना का आन्दोलन १६ अगस्त से शुरू हो रहा है, सिविल सोसायटी पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाने शुरू हो चुके है.

यहाँ एक छोटा-सा प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यह 'सिविल सोसायटी' क्या है ? चंद खाये-पिये, पढ़े-लिके अवकाश प्राप्त नौकरशाह और विदेशों से प्रतिवर्ष एड्स से लेकर विकास तक के नाम पर करोड़ों-अरबों की इमदाद प्राप्त करने वाले एनजीओ। क्या यही है नागरिक समाज? देश की बाकी जनता क्या 'अबे ! नागरिक' भी नहीं है ? तो शायद वह संसाधन होगी । मानव संसाधन। .......
स्वयं प्रकाश , वरिष्ठ साहित्यकार
यह सवाल अपनी जगह सही हो सकता है, लेकिन इस सवाल को उठाये जाने के समय और उठाने वाले की नियत में गहरा सरोकार है. आखिर इस सवाल को उठाने वाले किसका पक्ष लेना चाहते है. सरकार से तो जनता यों ही त्रस्त है, ऐसे में अन्ना के आन्दोलन से उसे जो थोड़ी बहुत उम्मीद है उसे भी ख़त्म करने की साजिश का साथ जनता से सरोकार रखने वाले साहित्यकार को कम से कम नहीं करना चाहिए. जनता के गुस्से पर राजनीति की रोटी सेकना तो राजनेताओं का काम है. एन जी ओ की कार्यशैली गलत हो सकती है लेकिन इस आधार पर उसकी पूरी संकल्पना का विरोध करना ठीक नहीं. हमारे देश की 80 फीसदी जनता के लिए रोटी दाल का सवाल बड़ा है. उसके जीवन के बेसिक संसाधनों को मुहैया कराने वाली हमारी सरकार कितनी भ्रष्ट है यह तो वह जानती है पर उसके खिलाफ सुनवाई कहाँ होगी यह उसे नहीं पता. इस सुनवाई के लिए जन लोकपाल बिल से यदि एक सशक्त स्पेस का निर्माण होता है तो देश के आखिरी नागरिक को निश्चित रूप से फायदा पहुंचेगा. इस लिए कुछ सवालों को फिलहाल के लिए स्थगित करके अन्ना का साथ देना जरुरी है, वरना 'काला धन वापस लाओ' की जरुरी मुहिम जिस तरह लोकप्रिय कांग्रेस सरकार ने रातों रात उखाड़ फेंकी वैसा ही कुछ आनेवाले सारे आंदोलनों के साथ न किया जाने लगे.

Monday, August 8, 2011

बादलों के घेरों के बीच


बादलों के घेरों के बीच से
फूटती थी, कहीं रौशनी
इन्कलाब आने को है
कहती थी ये रौशनी
छिप गया है, सूरज
पर अस्तित्वहीन नहीं
आसमाँ नीला ही नहीं होता
होता है, रंगीन भी
कभी कभी हो जाता है मामला
यूँ ही संगीन भी
क्रांतियाँ यूँ ही
ठंडी हवा सी, बहती रहती है
फिर अचानक से
कोई मशाल जल उठती है
हाथ के साथ
कई हाथ, खड़े होकर
थाम लेते हैं
मुद्दे, कई, बड़े होकर
बरसे, या बिखर जाये
बस दरस देकर,
बादल घिरते है, हमेशा
कोई, सबब लेकर.

Sunday, August 7, 2011

मीडिया की आस्था


आस्था के प्रश्न बड़े खतरनाक होते है. कुछ लोगों के लिए तो जीवन और मृत्यु से भी बड़े.सत्य साईं बाबा जब आई. सी.यू. में थे, तो मीडिया लोगों को यह बताने की कोशिश कर रहा था की उनकी मृत्यु से लोग गहरे सदमे में आ जायेंगे. कुछ लोगों को गहरा सदमा लगा भी. क्रिकेट के भगवान् की आँख में तो आंसू तक आ गये, उनकी व्यक्तिगत आस्था किसी के प्रति हो सकती है और वे किसी के लिए भी आंसू बहा सकते है इसमें कोई दो राय नहीं. पर मीडिया बहुत सी ख़बरें गड़प कर जाती है. जब साईनाथ के कमरे से करोड़ो की संपत्ति पाई गई तो मीडिया ने इस संपत्ति का सच सबके सामने ज़ाहिर नहीं किया. क्या ऐसा मीडिया ने आस्था के प्रश्नों से बचने के लिए किया या भगवान् के सच को छुपाने के लिए किया.

Friday, August 5, 2011

कामायनी, रीतिकाल और उर्दू शायरी




हिंदी कविता में प्रसाद कि कामायनी का अन्यतम स्थान है.इस महाकाव्य में प्रसाद ने शब्दों कि जो लड़ियाँ पिरोयीं है और जिस कथ्य के साथ उसे निभाया है वह बेहद खूबसूरत है. हालाँकि कामायनी के कथ्य में मुझे सबसे महत्वपूर्ण पात्र श्रद्धा या मनु नहीं लगते. प्रसाद कि इस रचना का सबसे महत्वपूर्ण चरित्र इड़ा है, जिसे वे बुद्धि का प्रतीक कहते है. श्रद्धा के सारे निर्णय भावुकता से भरे है और मनु का चरित्र ही चरित्रहीन जैसा है. यदि संसार को चलने और इसका नियमन करने कि असली भूमिका कोई निभाता है तो वह इड़ा है. समकालीन अर्थों में आज कि नारी का प्रतीक हैं इड़ा, जो शासन भी करती है और आनेवाले युग के प्रतीक श्रद्धा और मनु के पुत्र को भी सम्हालती है.

इसी तरह रीतिकाल को अक्सर घोर श्रृंगारिकता की उपाधि देकर उस काल की कविताओं को निम्नकोटि में रख दिया जाता है. कविता अपने समकालीन समाज का प्रतीक होती है. आज कोई भरी सभा में वैसी कवितायें सुनाये तो लम्पट कहलायेगा. लेकिन एक वह समय था जब ऐसी कवितायें बाकायदा दरबार में सुनी और सुनाई जाती थी, इस तथ्य की तुलना यदि हम लेओनार्दो द विंची और यूरोप के अन्य महान कलाकारों द्वारा चर्च में बनाये गए चित्रों या भारतीय परिवेश में ही कोणार्क के मंदिरों में बने शिल्पों से करें तो दरबारी या श्रृंगारिक प्रवृत्ति से अलग उस समय के समाज की एक अलग ही तस्वीर उभरती है. हो सकता है वह समाज आज से ज्यादा खुली सोच वाला रहा हो, आज की तरह का दुराव-छिपाव उस समाज में नहीं रहा हो, अन्यथा अभिव्यक्ति की यह स्वतंत्रता नहीं मिलती. समाजशास्त्री भी कहते है समाज सरलता से जटिलता की और बढ़ता है और भाषा जटिलता से सरलता की ओर.

अक्सर रीतिकाल को पढ़ाने वाले हमारे शिक्षकों की दृष्टि इतनी संकुचित होती है की वे खुद उस कविता के मर्म को नहीं समझते, उनकी अपनी मानसिक सोच का दायरा संकुचित होता है. आज जब सरकार भी सेक्स एजुकेशन की वकालत कर रही है तब रीतिकाल की श्रृंगारिक कविताओं को पढ़ने में शिक्षकों को शर्म क्यों आती है. यदि इन कवितों को वो प्रासंगिक नहीं समझते तो सिलेबस में बदलाव की कोशिश क्यों नहीं करते.दरसल हिंदी के ज्यादातर शिक्षक रोटी पानी का परमानेंट जुगाड़ होते ही लम्बी तान कर सोने के आदि होते हैं, कभी कुछ नया करने की सोचें भी तो जिस राह से वे आये होते हैं उस राह के मठाधीशों का विरोध करते सहमते हैं.

फैज़ अहमद फैज़ - अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे.......

उर्दू शायरी में रूमानियत (romanticism ) के साथ इन्क्लाबियत का स्वर उसे क्लासिक बना देता है. इन दोनों के मेल से बनी उर्दू शायरी जिस कोमलता (softness) के साथ व्यंग्य (irony) को जन्म देती है वह विधा के रूप में काव्य का सबसे बेहतरीन नमूना है.


Thursday, August 4, 2011

मीडिया की विदेश नीति



पिछले दिनों जब पाकिस्तान की युवा विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार भारत आईं तो उनके ड्रेसिंग सेन्स और एक्सेसरीज की चर्चा भारतीय मीडिया में खूब रही. अमेरिका
से जब हिलेरी क्लिंटन आतीं है तो उनकी एक्सेसरीज और ड्रेसिंग सेन्स भी लाजवाब होती है. उनकी फोटो भी टेलीविजन और समाचार पत्रों में खूब फ्लैश होती है मगर खबर के केंद्र में उनकी एक्सेसरीज या लुक कभी नहीं आता उनकी बात सुनी जाती है और मीडिया उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों को हाईलाईट करता है. इसी बात का एक तीसरा पहलु अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनकी पत्नी मिशेल ओबामा के साथ जुड़ता है. राजनीतिक गलियारों में बराक को जीतना महत्व दिया जाता है फैशन के गलियारों में मिशेल की उतनी ही तारीफ़ छपती है. अमेरिका का मीडिया मैनेजमेंट हमेशा ' टू दी प्वोइंट' चलता है. वो जिस चीज पर चाहते है मीडिया को उसी पर फोकस करना पड़ता है.
मीडिया का यह का दोगलापन उसके आकाओं की अमरीकापरस्ती का परिणाम है. भारत और पाकिस्तान के रिश्तो में मिठास आये ये अमेरिका चाहता ही नहीं इसलिये मीडिया उसी नीति पर काम करता है जो अमेरिका चाहता है. मीडिया को खबर चाहिए और दोस्ती की ख़बरों से दुश्मनी की ख़बरों में चटखारे लेने की गुंजाइश हमेशा से ही ज्यादा रही है.
इसलिए हिना रब्बानी खार जाते जाते मीडिया से यह नाराजगी जतातीं हैं कि वे फैशन आइकन के तौर पर नहीं बल्कि विदेश मंत्री के तौर पर मीडिया में फोकस कीं गयी होतीं तो उन्हें ज़्यादा अच्छा लगता वाजिब है. पर क्या करें, हिना जी मीडिया के अपने संकट हैं, उनके आकाओं के आका कहीं और बैठे हुए हैं.

Wednesday, August 3, 2011

परंपरागत विषयों की जरुरत और प्रासंगिकता


कुछ लोग इतिहास और भूगोल को नहीं सिर्फ तकनीकी को महत्वपूर्ण मानते हैं. अपने ही सुर को सच्चा और पक्का सुर मानने वाले ऐसे लोगों के लिए दूसरों के अनुभव झूठे और अपने अनुभव ही सच्चे होते है.
बहरहाल तकनीकी के विकसित होने का भी अपना इतिहास होता है और भौगोलिक आवश्यकताएं तकनीकी को जन्म देने से लेकर उसके फेरबदल तक में अहम् भूमिका निभाती हैं. पिछले दिनो इतिहास, हिंदी, संस्कृत जैसे विषयों को दरकिनार करने की कोशिश जोरों पर थी. पर शिक्षकों और छात्रों के भारी विरोध के बाद दरकिनार किये गए ये विषय जैसे तैसे चले जा रहे हैं. जिस तरह मशीनों का इतिहास जाने बिना आप मशीन को नहीं समझ सकते और उसका विकास नहीं कर सकते उसी तरह मनुष्य का इतिहास जाने बिना आप मनुष्य को नहीं समझ सकते. तकनीकी तौर पर आप चाहे कितना शशक्त हो जाएँ जिस समाज में आप रहते है उससे चाहकर भी कट नहीं सकते और उस समाज की सोच आपको निश्चित तौर पर प्रभावित भी करेगी. कभी आपको पीछे धकेलेगी तो कभी आगे बढ़ने का हौसला देगी. लेकिन जब किसी मनुष्य या समाज की सोच आपको पीछे धकेलेगी उस समय उस सोच का इतिहास जान कर ही आप उससे उबर पाएंगे. किसी मनुष्य कि सोच को आप उसका इतिहास और भूगोल जाने बिना नहीं समझ सकते तो फिर किसी देश के इतिहास और भूगोल को जाने बिना क्या आप आगे बढ़ सकते है? इसलिए इन परंपरागत विषयों की जरुरत और प्रासंगिकता कभी ख़त्म नहीं हो सकती.

Monday, August 1, 2011

हंस और कंस


बड़े बड़े फनकारों को अपना फन निखारने में मुद्दतें लगी होगी, ये फनकार बहुत से संगीतज्ञ, नर्तक या नर्तकी से लेकर अदने से साहित्यकार तक की लम्बी फेहरिस्त बनाते है. पर आज की पीढ़ी इनमे से बहुतों का आदर नहीं करती और इस नयी पीढ़ी का जो हिस्सा इनका आदर करने का दिखावा करता है उसका असली मकसद अपना मतलब निकालना होता है. ऐसे में कोई साहित्यकार कब महान और कब उन्ही लोगों के लिए लिजलिजा हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती. वर्त्तमान बहुत तेजी से पसर रहा है और महान होने की आकांचा भी, फिर भी हमें उम्मीद करनी चाहिए की कभी न कभी तो ये छुटभैये साहित्यकार अपने आराध्य देवों(साहित्यकारों ) की गोपियों को छोड़कर उनकी बंसी के मधुर आलाप के स्वर को कभी खुद भी पहचानेंगे और और उनकी इस बंसी की धुन का अनुकरण करेंगे न की उनकी गोपियों को फुसलाने की कला का.

Sunday, July 31, 2011

प्रेमचंद, हिंदी उपन्यास और दलित


प्रेमचंद को दलित प्रश्न से जोड़कर देखने वाले शायद यह भूल जाते है की जब प्रेमचंद कहानी और उपन्यासों की यथार्थपरक परिभाषा गढ़ रहे थे तो बाकी लोग तिलिस्म और ऐयारी के उपन्यास लिख रहे थे.सीढ़ी एक एक करके ही चढ़ी जाती है और प्रेमचंद ने बहुत सारी सीढिया एक साथ चढ़ी थी. उपन्यासों को तिलिस्म और ऐयारी के खांचे से निकाला, उसे समकालीन जीवन से जोड़ा, समकालीन मुद्दों जैसे आज़ादी का संघर्ष के साथ साथ आने वाले युग की नब्ज़ को पहचानते हुए दलित और स्त्री के प्रश्नों को अपने साहित्य में इस सादगी के साथ उठाया जिसका मुकाबला आज तक कोई लेखक नहीं कर सका है. कम से कम मेरी नज़र में तो ऐसा कोई साहित्यकार या उपन्यासकार नहीं है जिसने ग्रामीण जीवन के ऐसी सीधी और सच्ची अभिव्यक्ति अपने साहित्य में की हो. प्रेमचंद को हिंदी साहित्य के सबसे महान रचनाकार होने का गौरव किसी तूत्पुन्जीये आलोचक ने नहीं आम जनता ने दिया था. हाँ यह कहा जा सकता है उस समय तक ज्यादातर साहित्य पढ़ने वाला मध्यम वर्ग सवर्ण था क्योंकि दलितों के पठन पाठन की प्रक्रिया उन दिनो शुरू ही हुई थी, ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी उनके साहित्य में जिस विद्रोह की झलक मिलती है वही हमारी दलित चेतना के बीज में है. कुछ संकीर्ण दलित लेखक चाहे उनकी इस दलित चेतना पर आक्छेप लगाये पर उन्हें भी यह मानना पड़ेगा की यदि प्रेमचंद ने इसकी शुरुआत न भी की होती तो भी उनका कद कतई कम नहीं आँका जा सकता है. प्रेमचंद ने हिंदी उपन्यास को वह स्वर दिया जिसने हिंदी उपन्यास और कहानी की मज़बूत नीव डाली.