Monday, August 1, 2011

हंस और कंस


बड़े बड़े फनकारों को अपना फन निखारने में मुद्दतें लगी होगी, ये फनकार बहुत से संगीतज्ञ, नर्तक या नर्तकी से लेकर अदने से साहित्यकार तक की लम्बी फेहरिस्त बनाते है. पर आज की पीढ़ी इनमे से बहुतों का आदर नहीं करती और इस नयी पीढ़ी का जो हिस्सा इनका आदर करने का दिखावा करता है उसका असली मकसद अपना मतलब निकालना होता है. ऐसे में कोई साहित्यकार कब महान और कब उन्ही लोगों के लिए लिजलिजा हो जाये इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती. वर्त्तमान बहुत तेजी से पसर रहा है और महान होने की आकांचा भी, फिर भी हमें उम्मीद करनी चाहिए की कभी न कभी तो ये छुटभैये साहित्यकार अपने आराध्य देवों(साहित्यकारों ) की गोपियों को छोड़कर उनकी बंसी के मधुर आलाप के स्वर को कभी खुद भी पहचानेंगे और और उनकी इस बंसी की धुन का अनुकरण करेंगे न की उनकी गोपियों को फुसलाने की कला का.

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