Wednesday, August 10, 2011

जनता के सरोकार और 'सिविल सोसायटी'


अन्ना का आन्दोलन १६ अगस्त से शुरू हो रहा है, सिविल सोसायटी पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाने शुरू हो चुके है.

यहाँ एक छोटा-सा प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यह 'सिविल सोसायटी' क्या है ? चंद खाये-पिये, पढ़े-लिके अवकाश प्राप्त नौकरशाह और विदेशों से प्रतिवर्ष एड्स से लेकर विकास तक के नाम पर करोड़ों-अरबों की इमदाद प्राप्त करने वाले एनजीओ। क्या यही है नागरिक समाज? देश की बाकी जनता क्या 'अबे ! नागरिक' भी नहीं है ? तो शायद वह संसाधन होगी । मानव संसाधन। .......
स्वयं प्रकाश , वरिष्ठ साहित्यकार
यह सवाल अपनी जगह सही हो सकता है, लेकिन इस सवाल को उठाये जाने के समय और उठाने वाले की नियत में गहरा सरोकार है. आखिर इस सवाल को उठाने वाले किसका पक्ष लेना चाहते है. सरकार से तो जनता यों ही त्रस्त है, ऐसे में अन्ना के आन्दोलन से उसे जो थोड़ी बहुत उम्मीद है उसे भी ख़त्म करने की साजिश का साथ जनता से सरोकार रखने वाले साहित्यकार को कम से कम नहीं करना चाहिए. जनता के गुस्से पर राजनीति की रोटी सेकना तो राजनेताओं का काम है. एन जी ओ की कार्यशैली गलत हो सकती है लेकिन इस आधार पर उसकी पूरी संकल्पना का विरोध करना ठीक नहीं. हमारे देश की 80 फीसदी जनता के लिए रोटी दाल का सवाल बड़ा है. उसके जीवन के बेसिक संसाधनों को मुहैया कराने वाली हमारी सरकार कितनी भ्रष्ट है यह तो वह जानती है पर उसके खिलाफ सुनवाई कहाँ होगी यह उसे नहीं पता. इस सुनवाई के लिए जन लोकपाल बिल से यदि एक सशक्त स्पेस का निर्माण होता है तो देश के आखिरी नागरिक को निश्चित रूप से फायदा पहुंचेगा. इस लिए कुछ सवालों को फिलहाल के लिए स्थगित करके अन्ना का साथ देना जरुरी है, वरना 'काला धन वापस लाओ' की जरुरी मुहिम जिस तरह लोकप्रिय कांग्रेस सरकार ने रातों रात उखाड़ फेंकी वैसा ही कुछ आनेवाले सारे आंदोलनों के साथ न किया जाने लगे.

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